अनाथ भगवान का दूसरा खंड | Anath Bhagwan Dvitiya Khand
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(८)
कृष्टो को सहनशीलत्ता के साथ सह लो | टस प्रकार कष्टौ को सदन कफे
प्रलोभनों पर विजय पाश्रोगे तो तुम्हे मोत की प्राप्ति दोगी । वास्तव मे त्याग
में दु ख है ही नहीं, म्न्वु लोग कायरता के कारण उसमें दुःख मानते हैं ।
श्रगर सदनशीलता पूर्वक कप्ट सदन कर लिये जाएँ तो घमराद्ट दो दी नदी
सकती |
अनाथ मुनि कहते हैं--राजन् । कितने ही कायर साधु, सायुवेप धारण
कर लेते ईं श्र केशों को लुचन भी करते है किन्तु श्रन्तरंग ननोर ब्रहि
रंग रूप एक सरीखा नदीं होता । वे बादर कुं टिखलाते हे रौर श्रन्दर
श्रौर दी छु रखते ह । दस विरूपता क कारण वे श्रनाथ के श्रनाथ दी
रहते हैं । साधु बन जाने के कारण उनका ससार-सम्बन्ध सस्ारी नैस नदीं
रहता ओर साधु धर्म का भी यथावत् पालन नहीं होता । इस प्रकार उनकी
दालत वेटगी घन जाती है ।
आप साधुता के पुजारी है, केवल साधुवेप या बिद्वता के पुजारी नहीं
हैं। काशी में अनेक पश्डित त्हुत पढे-लिखे है, किन्ठ क्या उन्हें साधु मान
कर वन्ढना करते हो ? उन्हें श्राप बन्दना नहीं करते क्योंकि श्राप केवल
परिडताई के पुजारी नही ई, वरन् साधुता के ही पुजारी ईं 1 कदावत है--
भ्मेप पूजा ते मत दूजा #
मगवान् महावीर का सिद्धात केवल वेपरपूजा का नदीं दैः गुण की ही
पूजा करने का है । श्रतएव गुण की परीक्षा करके उसकी पूजा करनी
ववादिए । किसी साघु मे वास्तविक साधुता का गुण नदीं दै, केवल वेप है
तो उसे नदी मानना चाहिए |
किसी साधु में गुण है था नहीं, इस बात की साक्षी तुम्शारी आत्मा दी
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