प्रगतिवाद- एक समीक्षा | Pragativad Ek Samiksha

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Pragativad Ek Samiksha by धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषय-प्रवेंश व्याप क प्रथो मे प्रगतिवाद साद्वित्य की उस विशेष दिशा को कहेंगे जिसमें चल कर साहित्य मानव सभ्यता आर संस्कृति के विकास में सबयोग देता है; रूढ़_श्रर्थों में प्रगतिवाद साहित्य की उस दिशा विशेष को कहते हैं, जो माक्सबादी जीवन दशन के श्रनुसार साहित्य के लिए निर्देशित की गईं है |) (माक्सवादी जीवन दशने समार्ज श्रौर सभ्पता को सतत परिव्तन- शील मानता है। उसके श्रनुसार श्रार्धिक उत्पादन ही समाज व्यतस्था के ढाँचे के मूल से रहता है )) याथि व्यवस्था के श्रस्तगत सदा दो वग रहे हैं, जिनमें निरन्तर संघष होता रददा है, एक वग दुसरे वग को पराजित कर श्रपनी व्यवस्था समाज्ञ पर श्रारोपित करता रदादैश्रौर इस प्रकार समाज की प्रगति होनी रदी ्। हस वग- संघष की चरम परिणति, पूजीवादी (बोजुग्रा) शरोर सवहारा < प्रोलेतेरियत ) वग के संघष में है। चूँकि पुंजीवादी व्यवस्था शोषण श्रोर विषमता की नींब पर खड़ी है, श्रतः वह दिनोदिन खोखली श्रौर कमजोर होती जाती है उसके कदम लड़खड़ाने लगते श्रौर धीरे-धीरे सवहारा वग पंजोवादी वगसे सत्ता छीनकर शपना शासन स्थापित कर लेगा । सांस्कृतिक पत्त मेभीपृ जीवाद का खोखलापन छिपा नहीं रह पातादहै, परंजीवाद मानव सम्बन्धो श्रौर मानवीय श्रादर्शो का मूल्य चन्द चॉदी के सिक्कों पर श्रॉकने लगता है, जिसके कारण मानवीय जीवन का खदज सौन्दयं विदत श्रोर करूप हो जाता है । संस्कृति में एक घटन, एक बंघाव, एक गन्दी सड़ायन्थ




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