कथा - कादम्बिनी | Katha- Kadambini
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
164
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रनिला श्र देवरात @
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का विचार स्थिर किया है । श्राप ही की तरह मैंने भी किसी
की सेवा की ठानी है । जो स्वयं सेवक हो वह किसी का
स्वामी कैसे बन सकता है ?” झनिंला--“हाँ, पक मार्ग है ।
श्राप की शरण में प्राप्त हैं, झज्लीकार ही करना उचित है ।
स्वयं भगवान् बुद्ध ने शरणापन्न वेश्या तक को झपनाया है ।
जिसके लिए अङ्गीकार श्र तिरस्कार दोना दशाश्नो मे कोई
दूसरी गति नहीं है उस पर दया झानी चाहिए । साधु तो
दया की सूर्ति ही होते हैं । इससे शऔर, झधिक श्रव मत
कहलाइप 1»
देवरात इसके उत्तर में कुछ कहना ही चाहता था कि
इतने में उसका मित्र गोविन्द आ गया। वह स्त्री के साथ बातें
करते देखकर उसपर बहुत बिगड़ा और कहा--शझाज से तू
अपनी राह और में अपनी राह । भिक्चुक ब्रत लेने की इच्छा
रख कर स्त्री से बातें करना ! राम ! राम ! छी छी !” इतना
कहकर वह उलरे पाँच चला गया । उसी खमय देवरात की
आँखें खुल गई ।
डे
गोविन्द् को बातं देवरात के हृदय में चुभ गई थीं |
उसका फिर नींद नहीं झ्राई । सेाचते-विचारते सवेरा हो
गया | झासन उठाया, झाय लोग एकत्र हुए । सबसे बिदा
हो कर वह जइयारी के लिए रवाना डुझा । दिन ढलते-ढलते
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