कथा - कादम्बिनी | Katha- Kadambini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रनिला श्र देवरात @ ®$ ०७७ >ॐ ॐॐॐ$ॐ® ० 99 ॐ 9 ०७०० >ॐ ® ॐ ॐॐ$ ॐॐॐ ॐॐ@ॐ का विचार स्थिर किया है । श्राप ही की तरह मैंने भी किसी की सेवा की ठानी है । जो स्वयं सेवक हो वह किसी का स्वामी कैसे बन सकता है ?” झनिंला--“हाँ, पक मार्ग है । श्राप की शरण में प्राप्त हैं, झज्लीकार ही करना उचित है । स्वयं भगवान्‌ बुद्ध ने शरणापन्न वेश्या तक को झपनाया है । जिसके लिए अङ्गीकार श्र तिरस्कार दोना दशाश्नो मे कोई दूसरी गति नहीं है उस पर दया झानी चाहिए । साधु तो दया की सूर्ति ही होते हैं । इससे शऔर, झधिक श्रव मत कहलाइप 1» देवरात इसके उत्तर में कुछ कहना ही चाहता था कि इतने में उसका मित्र गोविन्द आ गया। वह स्त्री के साथ बातें करते देखकर उसपर बहुत बिगड़ा और कहा--शझाज से तू अपनी राह और में अपनी राह । भिक्चुक ब्रत लेने की इच्छा रख कर स्त्री से बातें करना ! राम ! राम ! छी छी !” इतना कहकर वह उलरे पाँच चला गया । उसी खमय देवरात की आँखें खुल गई । डे गोविन्द्‌ को बातं देवरात के हृदय में चुभ गई थीं | उसका फिर नींद नहीं झ्राई । सेाचते-विचारते सवेरा हो गया | झासन उठाया, झाय लोग एकत्र हुए । सबसे बिदा हो कर वह जइयारी के लिए रवाना डुझा । दिन ढलते-ढलते




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