जैन आचार | Jain Achar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्पेः जेनाचार की भुमिका
आचार ओर विचार परस्पर सम्बद्ध ही नहीं, एक-दूसरे के
पुरक भी हैं । संसार मे जितनी भी ज्ञान-शाखाएं हैं, किसी न
किसी रूप मे भाचार अथवा विचार अथवा दोनो से सम्बद्ध हैं ।
व्यक्तित्व के पुर्ण विकास के लिए ऐसी ज्ञान-शाखाएँ अनिवार्य है
जो विचार का विकास करने के साथ ही साथ आचार को भी
गति प्रदान करेः। दूसरे शब्दो मे जिन विद्या मे आचार व
विचार, दोनों के बीज मौजूद हो वे ही व्यक्तित्वे का वास्तविक
विकास कर सकती हैं । जब तक आचार को विचारों का सहयोग
प्राप्तन हो अथवा विचार श्राचार रूप में परिणत न हों तब तर्क
जीवन का यथार्थ विकास नही हो सकता । इसी दृष्टि से आचार
और विचार को परस्पर सम्बद्ध एवं पुरक कहा जाता है ।
आचार ओर च्चिर :
विचारो अथवा आद्यो का व्यावहारिक रूप आचार है ।
माचार की आधारदिला नैतिकता है! जो आचार नैतिकता
पर प्रतिष्ठित नहौ है वह मद्शं आचार नही कटा जा सकता ।
एसा आचार त्याज्य है । समाज मे धर्म की प्रतिष्ठा इसीलिए है
कि वह नैतिकता पर प्रतिष्ठित है । वास्तव मे धर्म की उत्पत्ति
मनुष्य के भीतर रही हुई उस भावना के आधार पर ही होती
है जिसे हम नैतिकता कहते हैं। नैतिकता का श्रादर्श जितना उच्च
User Reviews
No Reviews | Add Yours...