सूर - पंचरत्न | Sur - Pancharatn

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीकृष्णाय नम! शै संसार जटिल समस्याश्रौ का अगार हे, दुःखसमय कारागार है। इस जड़े शत्‌ मे सुख का नाम नदीं | षन; जन्‌, साहाय्य, संपत्ति, पदमयादा, विद्या; यश, सव भटे ! इस संसार-मरुस्थलं मं समस्त प्राणी एुखप्राम्तिरूपी मृगतृष्णा की खोज में मटकते फिरते हैं । सभी यथासाध्य सुखोपाजन के प्रयास में लगे रहते रै, लेकिन सब प्रयत्नो का, सब साधनाश्रो का पर्णिम होता क्या है, केवल हाहाकार ! विधाता की सृष्टि दन्द्रमय है । एक शरोर सुख हें तो दूसरी ओर दुःख, एक शोर पुण्य है तो दूसरी श्रोर पाप, एक श्रौर स्वयं है तो दूसरी ओर नरक । इसी प्रकार श्रादि-प्नन्त) निन्द्‌ा-स्वुति, संप्ति-विपत्ति; उन्नति-श्रव- नति, सत्य-ग्रसत्य, धर्म-ग्रधम आदि विरोधी भावों में ही इस संसार को स्थिति है अथवा यों कहिये कि संसार इन दो विरोधी भावों की समष्टि हैं ! दिन और रात की तरह पर्याय से इनका यातायात लगा ही रहता है । इनमें से एक साव सानव-हृदय को प्रिय होता है तो दूसरा ग्रप्रिय परमात्मा ने यदि सब शुभ ही शुभ बनाया होता तो अशुभ का श्रस्तित्व कहाँ । बिना सुख का अनुभव किये दुःख, अथवा दुःख का अनुभव किये बिना सुख कैसा ! ईख का रस कितना मीठा होता है, इस बात का ज्ञान शिवा श्मनुभव किसी व्यक्ति को तब तक श्रच्छी तरह नहीं हो सकता जब तक उसने नीम कौ कटुता का अनु- अब न {न म ? दथः ससार-साः प्र 5 रो न 7 थ क भव न किया हो । इस अपार संसार-सागर में गोता लगाने से सुख-दुम्ख का अनुभव प्रत्येक प्रणी को हता है । अरब प्रश्न यह उठता है कि सुख श्रीर्‌




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