नूरजहां | NuraJahan

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NuraJahan  by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फुटकर आलोचनाये । ११ (३) स्वर्गीय कविवर वरदाचरण मित्र सी.एस .।--' 'द्विजेन्द्र जैसे सरछ अ्रकृतिके लोग जटिल दुर्बोध चरित्र अकित ही नहीं कर सकते । द्रिजेन्द्रबाबू अपने नूरजर्दो-वरित्रको जो जटिल ओर दुर्बोध कहते है सो यह उनका भ्रम है । नूरजहदों-चरित्र दुर्बोध नहीं हुआ-वह स्वेत्र ही सुस्पष्ट है। अर्थात्‌, विजयबाबूने जो नूरजहों-चरित्रकी जरिरुताका विष्टेषण किया है, उसे बहुल गहरा विचार करके आविष्छेत नदी करना पडता । नूरजहकि अपने मुदसे कहने पर भी-- आत्मप्रतारणा करने पर भी--यह बात सहज ही समझी जाती दै कि उसने बदला छेनेके छिए सम्नाद्से विवाह नहीं किया, उसके मनमे क्षमता ओर गारवङी आकाक्ताके साथ साथ भोग-लाठसा ही गुप्त रूपसे बलवती थी । द्विजे- न्दकी सरलता आर कलाकुशलताने इस बातको समझनेका मार्ग सर्वत्र ही सुगम कर दिया हें । ”* (४) धीयत नवकरृष्ण घोष --*...कविका यद कथन सर्वेथा भित्तिद्दीन न होने पर भी कि ˆ जनसाधारणको विरोष कर किसी किसी समालोचकको यह बहुत ही दुर्बोध प्रतीत होगा ` नूरजर्हौका चरित्र रसम्राही पाठकोके निकट उप- भोग्य समज्ञा गया है, उसका खूब आदर हुआ है और इस नाटककी रचना करके द्विजेन्द्रलाल नाय्यशिल्पी के श्रेष्ठ आसनको पानेके योग्य समझे जाकर सादित्यसंसा - रमं अभिनन्दित हुए दै इस नाटकमें यद्यपि कविने किसी भी नीतिके प्रचारके उदेश्यसे केखनी धारण नहीं की हे, तथापि स्वजाति ओर स्वदेशकी उन्नतिके मार्गमें जो सब विघ्न थे और जो उनके हृदयमे व्यथा पहुँशाते थे, वे प्रसंगानुसार उनकी लेखनी द्वारा पात्र और पात्रियोके मुखसे स्वतः ही प्रकाशित हो गये हैं । कुछ उदाहरण लीजिए । क्णसिंह--जब देखता हूँ कि महाबतखेंकि समान धर्मात्मा कर्मवीर व्यक्तिको कुछ आचारभेदके कारण हम अपना कहकर, जातिके भीतर लेकर गले नदीं रगा सकते, तब समक्षम भा जाता है कि हम लोगोका भधःपतन क्यों हुजा दै । जर्हो जीवन है, वरहो वह बाहरी चीजको सीचकर अपना ढेता दे और जहाँ मरण दे वहीं बह खुद ही सौ टुकड़े होकर इघर उधर बिखर जाता हे ।




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