काव्यालड्कास्सूत्रवृत्ति | Kavyalankassutravriti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
78 MB
कुल पष्ठ :
582
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शब्द् का प्रयोग न करते हुए भी वे दोनों के साहित्य को ही
काव्य का मूल अंग मानते हैं ।
(२५ दोष को वे काव्य के लिए असह्म सानते हें : इसीलिए सॉन्दय
का समावेश करने के लिए दोष का बहिष्कार पहला प्रतिबन्ध है।
(२) शण काव्य का निस्य धमं दे-र्थात् उसकी स्थिति काव्य कै
ज्लिए् च्रननिवायं हे,
(४) अलडार काव्य का श्रनित्य घम ह--उसकी स्थिति वांछनीय है;
प्रनिवायं नहीं
यह तो स्पष्ट दही है कफि वामन का लण नदोष नदीं हे! लक्षण
अरतिन्या्ति श्रार श्रव्यापि दोषो से मुक्त होना चाषिये : उसकी शब्दावली
सवथा स्पष्ट किन्तु संतुलित होनी चाहिये--उसमें कोई शब्द श्नावश्यक नहीं
होना चाहिए । इस दृष्टि से, पहले तो चामन का शोर वामन के अनुकरण पर
मम्मट का दोष के अभाव को लक्षण मे स्थान देना अधिक संगत नहीं हें ।
दोष की स्थिति एक तो सापेक्षिक दे; दूसरे; दोष काव्य सें ब।घक तो हो
सकता है; परन्तु उसके अस्तित्व का सबंधा निषेध नहीं कर सकता । काणत्व
श्रथवा क्लीवत्व मनुष्य के व्यक्तित्व की हानि करता है; सनुप्यता का निषेध
नहीं करता । इसलिए दोषाभाव को काव्य-लक्ण में स्थान देना अनावश्यक
ही है। इसके अतिरिक्त ्रलङ्कार री वांदनीयता भी लंच्तण का झंग नहीं हो
सकती । मनुष्य के लिए अलंकरण वांछुनीय तो हो सकता हैः किन्तु वह
सनुष्यता का अनिवायं गुण नहीं हो सकता । चास्तव में लक्षण के अन्तगत
चांदनीय तथा चेकड्पिक के लिए स्थान ही नहीं है। लक्षण में मूल; पाथेक्य-
कारी विशेषता रहनी चाहिए ; भावात्मक श्रथवा अभावाठ्मक सहायक गुणों
की सूची नहीं । इस दृष्टि से भामद का लक्षण “शब्द-अथ का साहित्य”
कद्दीं अधिक तत्व-गत तथा मोलिक हे । जहां शब्द हमारे झथे का श्ननिवायं
माध्यम बन जाता है वही वाणी को सफलता हे । यही श्चभिव्यज्ञनावाद का
मूल सिद्धान्त दे--क्रोचे ने श्रव्यन्त प्रबल शब्दों में इसी का स्थापन और
विवेचन किया हे । श्रारमाभिव्यंजन का सिद्धान्त भी यही हैं। मौलिक श्र
व्यापक दष्ट से भामह का लक्षण श्रत्यन्त शुद्ध श्रौर मान्य है : परन्तु इस
पर अतिव्याप्ति का आरोप किया जा सकता है, चौर परवती श्राचायौ ने किया
भी है। झारोप यह हे कि यह तो श्रभिव्यजना का लक्तण हुआा--काव्य का
नहीं । शब्द और अथ का सामंजस्य उक्ति की सफलता है--झभिव्यज्ञना
९...
User Reviews
No Reviews | Add Yours...