काव्यालड्कास्सूत्रवृत्ति | Kavyalankassutravriti

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Kavyalankassutravriti by आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणिः - Acharya Visheshwar Siddhantshiromani:

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शब्द्‌ का प्रयोग न करते हुए भी वे दोनों के साहित्य को ही काव्य का मूल अंग मानते हैं । (२५ दोष को वे काव्य के लिए असह्म सानते हें : इसीलिए सॉन्दय का समावेश करने के लिए दोष का बहिष्कार पहला प्रतिबन्ध है। (२) शण काव्य का निस्य धमं दे-र्थात्‌ उसकी स्थिति काव्य कै ज्लिए्‌ च्रननिवायं हे, (४) अलडार काव्य का श्रनित्य घम ह--उसकी स्थिति वांछनीय है; प्रनिवायं नहीं यह तो स्पष्ट दही है कफि वामन का लण नदोष नदीं हे! लक्षण अरतिन्या्ति श्रार श्रव्यापि दोषो से मुक्त होना चाषिये : उसकी शब्दावली सवथा स्पष्ट किन्तु संतुलित होनी चाहिये--उसमें कोई शब्द श्नावश्यक नहीं होना चाहिए । इस दृष्टि से, पहले तो चामन का शोर वामन के अनुकरण पर मम्मट का दोष के अभाव को लक्षण मे स्थान देना अधिक संगत नहीं हें । दोष की स्थिति एक तो सापेक्षिक दे; दूसरे; दोष काव्य सें ब।घक तो हो सकता है; परन्तु उसके अस्तित्व का सबंधा निषेध नहीं कर सकता । काणत्व श्रथवा क्लीवत्व मनुष्य के व्यक्तित्व की हानि करता है; सनुप्यता का निषेध नहीं करता । इसलिए दोषाभाव को काव्य-लक्ण में स्थान देना अनावश्यक ही है। इसके अतिरिक्त ्रलङ्कार री वांदनीयता भी लंच्तण का झंग नहीं हो सकती । मनुष्य के लिए अलंकरण वांछुनीय तो हो सकता हैः किन्तु वह सनुष्यता का अनिवायं गुण नहीं हो सकता । चास्तव में लक्षण के अन्तगत चांदनीय तथा चेकड्पिक के लिए स्थान ही नहीं है। लक्षण में मूल; पाथेक्य- कारी विशेषता रहनी चाहिए ; भावात्मक श्रथवा अभावाठ्मक सहायक गुणों की सूची नहीं । इस दृष्टि से भामद का लक्षण “शब्द-अथ का साहित्य” कद्दीं अधिक तत्व-गत तथा मोलिक हे । जहां शब्द हमारे झथे का श्ननिवायं माध्यम बन जाता है वही वाणी को सफलता हे । यही श्चभिव्यज्ञनावाद का मूल सिद्धान्त दे--क्रोचे ने श्रव्यन्त प्रबल शब्दों में इसी का स्थापन और विवेचन किया हे । श्रारमाभिव्यंजन का सिद्धान्त भी यही हैं। मौलिक श्र व्यापक दष्ट से भामह का लक्षण श्रत्यन्त शुद्ध श्रौर मान्य है : परन्तु इस पर अतिव्याप्ति का आरोप किया जा सकता है, चौर परवती श्राचायौ ने किया भी है। झारोप यह हे कि यह तो श्रभिव्यजना का लक्तण हुआा--काव्य का नहीं । शब्द और अथ का सामंजस्य उक्ति की सफलता है--झभिव्यज्ञना ९...




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