अंधी गांधारी के सपने | Andhi Gandhari Ke Sapane

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Andhi Gandhari Ke Sapane by घनश्याम प्रसाद - Ghanshyam Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर, इस नारी कै माथ जो खिलवाड़ कर रही है--उसका जीता जागता सलीव, मैरी दृष्टि के सामने तथ्ते पर पड़ा पड़ा गर्म तवे की तरह तप रहा है। भला; ऐसे सलीवों को कौन उठा सकता हैं रव ? --नफसत, हिकारतं श्र बदनसीबी का “क्रूस' जो है यह ? आर भावावेश से उसका वक्ष फिर उफन पड़ा तो पीड़ा की हल्की-सी सिहरन उसकी समुची देह में दौड़ गयी 1 तभी कही जल गाडे ने टन टन कर दो के टकारे बजाये। रात्रि के सननादे की उनीदी हवा कौ परतो पर तंरती ध्वनि ग्रघसोयी ऋता के कानों के परदों से धीरे से आरा टकराई तो पलकें उघड़ पड़ी । देखा-कुछ ही टूर बहीं पीडितं सहवासिनी कम्बल पैरो से परे धकेल रही दहै। एक धीमी चीत्कार भर फिर निढाल हो गयी । श्राकाश्च के पद्याति कोनेषिर्बाद काप्रकाशन जाने कब से इधर कक कॉककर श्रब दूर च्ुडीगरों की उस मस्जिद की कुतुब सी लम्बी दो मीनारों के बीच से होकर गुजर रहा होगा, तभी कफन सी सेद चादनी दर दूर तक फंल गयी है श्रौर दुनिया की मजार बड़े मजे से इसके नीचे पसरी हुई है । प्रकाश के दो बड़े सुहावने धब्वे मासूम खरगोश से--उचक कर बरक के सीखचो मे घुस श्राये है । ऋता भी उठ बैठी, चलकर सीखचों के पास ग्रा गयी, खड़ी खड़ी दूर दूर तक निगाह दौड़ाती रही । ऊँची नीची पहाड़ियों की सर्वाकार श्र शियों की चोटियाँ उस बर्फ सी चाँदनी में प्राप्र पास खड़ी, एक दूसरे को पुलकित निहार रही है । श्राज तो यह जड़ता भी कसी सजीव, उन्मुक्त शरीर श्राकर्षक लग रही है - श्रौर मन को कल्पना के सुरगी पंख मिल गये तो लौह-सीखचो के जड़ बंधन जैसे टूट टूठ कर्‌ विखरने लगे । ऋता मुहूतं भर के लिए श्रपनी चाद स्थिति भूव गयो ॥ तन्मय-भायों तं टृवौ इवौ सलाषोको थमे'वुत वनी खड़ी है--कि उसकी पीठ सहलाता किसी हाथ का सुखद स्पशं हुम्रा तो चौक कर पीछे मुड पड़ी । दृष्टि स्तब्ध, वाणी निर्वाक ! दो वांहों ने फैलकर उसकी देह को झपने में वाँघ लिया और बड़ी बेतावी से वे दो प्यासे झधर ऋता के कपोलों को देर तक चुमते हो रहे । कगा सुखद है ग्रह श्राश्चर्य । ताप से तपती पसोना-पसीना होती देह, अब अपनी सहर्वंदिनो ऋता को इस तरह चुम रही है । झाँखो के आँसू थम ही नहीं रहे । ऋता का रोम रोम स्नेह से भीग उठा । उसकी वाँहों ने स्वतः अंधी गांधारी के सपने/ 1 1




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