साहित्य और संस्कृति | Sahity Aur Sanskrati

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Sahity Aur Sanskrati by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खाहित्य भार सस्कृति |] ६ एक कारण यह भी कि चतुर्दश पूर्वर यौर दगवपूववर साधक नियमत सम्यग्दशी होते हैं।* तमेव सच्न णीसक ज जिणेहिं पवेद्य * तथा णिम्गये पाव यणे भद्दे, अय परमद्ठे, ससे जणदूठे उनका मुख्य घोष होता है । वे सदा निर्प्रन्व प्रवचन को भागे करके दही चते है 1\ एतदथं उनके हारा रचितं गन्योम दादशागी से विरुद्ध तथ्यों को सनावना नहीं होती, उनका कथन दादलागी म भविरुद्ध होता है। अत उनके द्वारा रघित गन्यो को भी मागमे के समान प्रामाणिक माना गया हैं। परन्तु यहू स्मरण रखना चाहिए फि उनमे स्वत प्रामाण्य नही, परत प्रामाण्य है । उनका परीक्षणप्रस्तर द्वादशागी है । अन्य स्थविरो द्वारा रचित ग्रन्थों थी. प्रामाणिक्ता और अप्रामाणियता का मांपंदण्ड भी यही हूँ कि वे जिनेश्वर देवो की. वाणी के अनुवूल है तो प्रामाणिक हू गौर प्रतिकूल है तो भप्रामाणिक । पुवं ओर अग जन आगमो कां प्राचीनतम वर्मीतिरण समवायाग में मिलता है । वहाँ भागम्‌ साहित्य का पूर्वं गौर अगकेरूपमे व्रिभाजन किया गया ह । पर्वं सस्या की दृष्टि से चौदह थे” भर अग वारह । वृहत्कत्पभाष्य गा० १३२ आचाराग ५१६ ३। उद्दे० ५ भगवत्ती २1५ चउदस पुव्वा प० त०--- उप्पायपुब्यमग्गेणिय च तइय च वीरिय पुव्व 1 मेत्यौनत्थि पवाय तत्तो नाणप्पकाय च ५८ ५ „८ ~< सच्चप्पवायपुष्व तत्तो आयप्पवयपुन्व च । कम्मप्पनायपुज्य पच्नस्खाण भवे नवम 11 विज्जाजण॒प्पवाय अवज्ञपाणाउ वारम ₹ुव्व । त्तो किरियविसाल पुव्व तह विदुसार च ॥ --ममवायाङ्ख , समवाय १४ ५, दुवाक्खगे गणिपिडगे प० त०-- आयारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नत्ती, गायाधम्मकहाओ, उवासगदमाओ, अतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइ विचागसुए, दिट्टिवाएं । --समवायाङ्, समवाय १३६




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