आगमो का संक्षिप्त परिचय | Aagmo Ka Sankshipt Parichay
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
518
श्रेणी :
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No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ६
के.” चाल ^ छः 2 “कल...” छो” 2. 7 चका ५.८2. ८“ ` 9.7 ` 4 ४ चक 4 ४. ^ च 20...” चर ५... चारा ५...” ८29. च 0...” चर के...” चका. 0...” चार, का ५.८७. ५. / चर ५2... चाा
जेन साहित्य मे शास्त्रार्थं पद्धति तथा हेतुविद्या सम्बन्धी उल्लेख श्राते ह, इससे यह्
तो नही कहा जा सकता कि जेन प्राचार्य उनसे प्रनमिन ये, किन्तु उनकी स्वाभा-
विक रुचि दूसरी श्रोर थी । श्रत पूर्वो त॑था दृष्टिवादके म्रध्ययन श्रध्यापन का
क्रम टूट गया, तथा काल की गति के श्रचुसार वारणागविति भी धीरे-धीरे क्षीण
होती चली गई, जिससे समग्र पूर्व साहित्य श्रौर दृप्टिवाद का व्यवच्छेद हो गया ।
इस वात को प्रमाणित करने के लिए भगवती सूत्र मे ग्राया हुमा भगवान् महावीर
ग्रौर गौतम का सम्वाद पर्याप्त स्पप्टीकरण करता है ।. गौतम के प्रष्न के उत्तर में
भगवान महावीर ने स्वय प्रतिपादन किया है कि मेरे प्रचचन सम्बन्धी पूर्वों का ज्ञान
एक हजार वपे तक विद्यमान रहेगा ।
व्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्पराश्रो के श्रनुसार श्रस्तिम श्रुतकेवली भद्रवाहु
स्वामी थे ।. भद्रवाहु का स्वगेवास वीरनिर्वाण के १७० वर्प पञ्चात् हुश्रा । उन्हीं
के साथ चतुदंग पूर्वघर या श्रुतकेवली का लोप हो गया । दिगम्वर मान्यततानुसार
यह लोप वीरनिर्वाण के १६२ वर्ष वाद माना जाता है । इस प्रकार दोनो मे ८ वरं
का अन्तर है । .
प्ाचाये भद्रबाहु के वाद दस पूरवैघरो कौ परम्परा चली । उसका अन्त श्रायवज्ध
स्वामी के साथ हुमा ।. उनकी मृत्यु वीरनिर्वाण के ५८४ वर्ष पश्चात् प्र्थात् ११४
वि० मे हुई । दिगम्बर मान्यतानसार श्रन्तिम दश पूवंधर धरसेन हृए श्रौर उनकी
मृत्यु वीरनर्वाण के २४५ वर्ष पश्चात् हुई । श्रुतकेवली के सम्बन्ध मे उवेताम्बर
श्र दिगम्वर मान्यताश्रो मे विशेष श्रन्तर नही है । दोनो की मत्यताशओ में ग्रन्तिम
श्रुतकेवली भद्रवाहुथे। उस समयमे भी केवल = वपं का श्नन्तर है। इसका श्रर्थ
यह है कि उस समय तक दोनो परम्पराएँ प्राय एक थी । किन्तु दसपुवंधर के
विपय मे नाम का भेद है श्रौर समय मे भी २३४ वर्ष का भेद है । दिगम्बर परम्परा-
नुसार भद्रवाहु के वाद दस पूर्वेघरो की परम्परा केवल १८३ वर्ष रही । र्वेताम्बरो
के श्ननुसार यह् परम्परा ४१४ वपं तक चलती रही । थे
श्रार्यत्रज के परचात् श्रायरक्षित हुए । वे ४ पूर्व सम्पूर्ण और दसवे पूवं के २४
यविक जानतेथे। ज्ञान का उत्तरोत्तर छास होता गया। श्रायरक्षित के शिष्यो
मे केवल दुवेलिका पुष्यमित्र नौ पूवं सीख सके किन्तु वे भी ्रनाभ्यासके कारण नवम
पूवे को भूल गए । वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष परचातू पुर्वों का ज्ञान सर्वथा
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