सत्य हरिश्चन्द्र | Sataya Harish Candra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ | बनी--कठिन श्रम उठाना स्वीकार किया “ˆ ˆ` उपेक्ला, धृणा, कष्ट सब कुछ- अपने आशा-घन रोहित पुत्र को सामने रख कर सहने का श्रत लिया । भविष्य की कल्पनाएँ उसके साथ हैं--कभी रोहित उसका उद्धार कर सकेगा” ”*' मगर भाग्य-चक्क में रोहित भी असमय उसका साथ छोड़ देता है, काल-सपे का कठिन प्रहार सुकुमार बालक नहीं सह सका। माता का हृदय एक बार दी विदीशे हो गया--उसकी यह चीत्कार- हा रोहित, हा पुत्र ! अकेली छोड़ मुझे तू कहाँ गया ? में जी कर अब बता करूँ क्या ! लेचल मु फको ज गया । पिछला दुख तो भूल न पाई, यह श्रा वज्र नया द्रटा। तारात्‌ निभौगिनि कैसी, भाग्य स्वेथा तव एटा ॥ - की ध्वनि-प्रति ध्वनि किसी भी हृदय को कंपित कर देने मे समर्थं है मगर दिज-पुत्र को इससे क्या, तारा उसकी दासी है उसे सुख पहुँचाने के लिए, श्रपने रुदन-स्वर से उसका हदय दुःखित करने के लिए नहीं । वह चिल्ला पड़ता दै-- रोती क्यों है ? पगली हो क्या गया ? कौन-सा नभ टूटा, बालक ही तो था दासी के जीवन का बन्घन-छूटा। - १... ॐ ( क्या उपचार ! मर गया वह तो भृत भी क्या जीवित होते? हम स्वामी दासों के पीछे द्रव्य नहीं अपना खोते । यह स्वामित्व, मानवता के लिए कितना बड़ा श्रमिशाप है? ओह ! हरिश्चन्द्र का चारित्रिक “क्लाइमेक्स' कुफन कर वसूल करने में हमारे सामने श्राता है--सेवक का कतेव्य वदद नहीं छोड़




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