राजनीति से दूर | Rajneeti Se Door

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो मस्जिदें १७ १३: कद, (५ = द्‌ सस्जद्‌ ग्राजकल अ्रखवारों में लाहौर की गहीदगंज मस्जिद की प्रतिदिन कुछ-न-कुछ चर्चा होती है । शहर में काफी खलबली मची हुई है। दोनों तरफ मजहबी जोदा दीखता है। एक-दूसरे पर हमले होते हं, एक दूसरे की वदनीयती की रिकायते होती हैं श्र वीच में एक पंच की तरह भ्रंग्रेज-हुकुमत ग्रपनी ताकत दिख- लाती है । मुभे न तो वाकयात ही ठीक-ठीक मालूम हैं कि किसने यह सिलसिला पहले छेड़ा था, या किसकी गलती थी, और न इसकी जांच करने की ही मेरी कोई इच्छा है। इस तरह के धामिक जोश मे मभ वहुत दिलचस्पी भी नदीं है । लेकिन दिल- चस्पी हो या न हो जव वह दुर्भाग्य से पैदा हो जाय, तो उसका सामान करना ही पड़ता है । में सोचता था कि हम लोग इस देश में कितने पिछड़े हुए हैं कि भ्रदना-श्रदना-सी वातों पर जान देने को उतारू हो जाते हैं, पर श्रपनी गुलामी श्रौर फाकेमस्ती सहने को तैयार रहते हैं । इस मस्जिद से मेरा ध्यान भटककर एक दूसरी मस्जिद की तरफ जा पहुंचा । वह एक बहुत प्रसिद्ध ऐतिहासिक मस्जिद है ग्नौर करीव चौदह सौ वर्ष से उसकी तरफ लाखों-करोड़ों निगाहें देखती श्राई हैं। वह इस्लाम से भी पुरानी है श्रौर उसने श्रपनी इस लंबी जिंदगी में न जाने कितनी वाते देखीं । उसके सामने वड़-वड़ साम्राज्य भिरे, पुरानी सत्तनतों का नारा हृश्रा, धामिक परिवर्तन हुए । खामोरी से उसने यह सव देखा, श्रौर हर करति श्र तबादले पर उसने ग्रपनी भी पोलाक वदली । चौदह सौ वपे के




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