शेर - ओ - सुखन भाग 3 | Sher - O - Sukhan vol. - 3

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Book Image : शेर - ओ - सुखन भाग 3  - Sher - O - Sukhan  vol. - 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाद अजीमावादी 'शाद' व्यथा पीडाके ऑसुओको पीनेके वजाय उन्हे, प्रकट करना आवश्यक समभते ह-- खमोशीसे मुसीवत भर भी सगीन होती हैं । तड़प ऐ धदिल तडपनेंसे जरा तसकीन होती है ॥ थूँ हो रातोको तडपेंगे, यूँ ही जाँ अपनी खोयेंगे । तेरी सर्ज़ी नहीं ऐ दर्देदिल ! अच्छा ! न सोयेंगे ॥ मगर वे अन्य नायरोकी तरह सरे आम हाय-हाय करनेके पक्षपाती नहीं-- तड़पना है तो जाओ जाके तड़पों 'शाद' ख़िलवतमें । बहुत दिनपर हम इतनी वात गुस्ताखाना कहते हूं ॥ इन दोनोके कलाममे उल्लेखनीय विद्षेष अन्तर यह है कि 'आतिद'के यहाँ पतित भाव, हकीर विचार और वाजारी इदक अधिकाश रूपमे पाया जाता है। लेकिन 'क्ञादके कलाममें इतनी सजीदगी, वडप्पन, और सुथरापन पाया जाता हैं कि वे उर्दु-शायरोंमे सर्वश्रेष्ठ नजर आते है। उर्दूके सर्वश्रेष्ठ शायर 'मीर' भी अपना दामन इन्तज़ाल (कमीने- जलील विचारों) से न वचाये रख सके । वकौल किसीके “उनके दीवानमें लौड़े भरे पड़े है” 'गालिब' भी घौल-धप्पेपर उतारू हो जाते है-- घोल-धप्पा उस सरापा नाज़का दोवा नहीं । हम हो कर बेठे थे 'गालिव' पेश दस्ती एक दिन ॥ और 'मोमिन' का तो मादूक ही हरजाई नहीं, स्वय भी हुरजाई थे । हमेदा मुगनयनियों (गज़ालचब्मो ) को फॉसिते रहे--




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