मेरी फजीहत | Meri Phajihat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आख़िर जब मुझसे न रहा गया, तब मैं भी जोर जोर से शुनुमान चालीसा का स्तोत्र कश्न लगा । ज्ञीता रहे हनुमान 'चालीसा बनाने बाले का बेटा ! जनाब स्तोत्र के आरम्स काल में ही सुधारानी ऐसी धीमी पढ़ गईं; कि कुछ पूछिये नहीं । मध्य काल में तो वे स्वयं चस स्तोघ्र के सुनते सुनते ऊब गई' । उन्होंने कहा, अरे चुप भी रहीगे या थों ही'ज्ञान खा ढालोंगे। दिन भर पर घर आये भी तो, दुख- सुख पूछने के कौन कहे, एक दूसरा ही पचड़ा छेड़ किया !! कहने की 'झाबश्यकता नहीं, कि विजय का सब मात- 'असबाव मेरे हाथ लग रददा था | इसलिये मैंने 'चुप हो जाना डी 'अपने लिये 'पधिक श्रेयस्कर समझा । क्योंकि कौन जाने, कछुछली के महल में निश्नास करने वाले चंचल परह्‌ कब पिर नाराज्‌ हो जाँय, पर सुधारानी ज्वालामुखी पहाड़ बनकर फ़िर आग, कावा, राख उगतने नगे ! फिर तो लेने के बेने दही पढ़ ज्ञायेंगे । बरफ़रार रहे मेरे हृदय की चतलुराइं ! उसने मुझे शास्त कर दिया, किन्तु मैं झपने मन हो मन सोचने लेगा, यद विचित्र श्यायालय है । जंषरा मरै, रोवे नदे, कदाचित्‌ यह लोकाकि भेसे ही न्यायालयों के अधिपत्तियों के लिये श्रेनाई गई है। , मैं चुप होकर सुभारानी को 'योर देखने लगा । उस समय मेरे श्रीं पर हैँसी थी । अंगनंग से जैसे मसम्नता का सावन भर रहा था ! सुधारानी से यह थात छिपी .न रदी । उन्न मेंरी ११




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