साहित्य - प्रवाह | Sahity - Pravah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य-मधाह पोषे 2 ८ ४४ (सन ई० १८६६-८७ ) के लगभग ॒कविताकी भाषाका -िवा चलं पड़ा । दोनो ओरसे पमि युद्ध छिड गया । उस समय पं० श्रीधर पने जगत सचाई सारः नाम्नी कविता काशी पत्निकामं छपवाई थी ] कहो न प्यारे मुझसे ऐसा, झूठा है यह सब संसार; थथा भगडा जीका रगडा केवल दुखका हेतु अपार । उसके पश्चात आपने ऋठु संहारका कुछ श्रंश श्रनूदित किया था | ग्रीष्म- अणंनका एक छुन्द आप लोगोंकी सेवाम रखता हूँ । खिलित नव छुसुम्बी रंग सिंदूरका सा ; - अति पवन चलेसे वेग जिसका बड़ा है। निज तट विट्पोंको, चोर्टियोंसे लिपटके विकट प्रबल ज्वाला दाद करती फिरे है | इसके पश्चात पं० श्रीघर पाठकनीनें खड़ी बोलीमें कविता शझ्ारंग फर दी | यद्यपि उन्होंने कश्मीर सुखमा, तथा ऊन ग्राम आदि श्रज भाषामें ही लिखे हैं पर झब उनकी प्रदत्ति खड़ी वोलीकी ही शोर श्धिक थी । 'हरमिट' के श्रनुवादका एक छन्द सुनिये- प्राण पिवारेकी गुखगाथा सषु कदां तक मे गार्ऊँ ; गाते गाते चुके नहीं वह चाहे में ही चुक जाऊँ। विश्व निंकाई विधिने उसमें की एकत्र बटोर वलिंहारी त्रिभुवन धन उसपर वारौ काम करोर। श्रान्त पथिक म अषप लिखते हैं :-- जहाँ द्रव्य और स्वाधीनी है तहाँ चित्त संतोष नहीं जहाँ बनिजका वासा है हां पर महत्व निदोंषर नहीं | अयवा-- + है स्वदेश प्रेमीका ऐसा ही सर्वत्र देश श्रभिमान उसके मनमें सर्वोत्तम है उसका ही प्रिय चन्म स्थान | यह खड़ी बोलीकी सरल रचनाएँ हैं। श्रनुवाद दोनेपर भी मौलिकता की छाप दे । लावनी छुन्दोंका प्रयोग क्या गया हे | कथानकं काव्य हे, परिपाटी पुरानी है । पारकजी नो बहर तवील बहूधा लिखा करते थे वह लावनी दालोंके ससगका फल. था |




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