थेरी - गाथाएँ | Theri Gathayen
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दुसरा चं १.
त पवत की चोटी पर बैठ गई। वहीं मेरा चित्त मुक्त दोगया !
तीन बिद्याओं को मैंने प्राप्त कर लिया; जुद्ध-शासन
(पूरा) कर लिया { ॥३०॥
२५, मित्रा
कपिलवस्तु मे शाक्यो कै राज-कुल मेँ जन्म ! महाप्रजापती गोतमी
थे प्रच्ज्या प्रदण की । श्रषने पूर्वजीवन का अजुचिंतन करती हुई चह
ज्ञानोन्मेष के उल्लास में गाती है: हर
चतुदेशी को, पूशमासी को और प्रत्येक पक्ष की अष्टमी को,
म त्रत रखती थी, उपवास करती थी ।
क्यों? यह सोचकर कि देव-योनि को प्राप्त कर मैं स्वर में
वास करूंगी ! ॥३९। हि
वह्दी मैं आज नित्य ही एकाद्दारी हूं; सु ढ़े हुए सिर वाली ह
चीवर पहनने बाली हू |
रितु आज मुभे देच-योनि की कासना नहीं है, खगं मे वास
करते की अभिलाषा नहीं दै)
कारण, मेनि हृद्थ को जलने चान्नी आशाओओ को ही दूर
फक दिया है ! 1३२]
२६, अभय-माता
चास्वविक नाम पद्मावती । उजयिनी की प्रसिद्ध गणिका । मगधघ-
राज विंविसार से इसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम श्रभय
रक्खां गया 1 श्रभय में विंवितार की बढ़ी अनुरक्ति थी। बाद में अभय
ने भवज्या रण कौ । उसके उपदेश से उसकी माँ प्रन्नलित हुई ।
शरभय ने जो उपदेश दिया था उसे गीतबद्ध कर रौर ्रपना भी एक
श्लोक जोड़ 'रभयमाता ने ज्ञान के पूर्ण उन्मेष में साया :
“माना ! अशुचि और दुर्गन्थमय, इस काया को तू वैसे के
तलवों से ऊपर शर सस्तक के केशों से नीचे तक भ्त्यवेकण
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