परम शान्ति का मार्ग | Pram Santi Ka Marg
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
446
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)धर्मयुक्त उन्नति ही उन्नति दै ५
हैं कि हम बड़ी उन्नति कर रहे हैं, किंतु वस्तुत उनकी यह उन्नति
आशिक ही है | पूर्के छोगोंमें भौतिक उनति इसकी अपेक्षा बहुत ही
घढ़ी-चढ़ी थी, परतु उसका प्रकार तया साधन दूसरा था ओर बह
अधि परिकसित एव प्रमायोत्पादक था । रामायणम वर्णित प्पुष्पकः
विमान, राजा शाल्वका 'सौभ” गरिमान; पाझुपताख्र, नारायणास्र और
न्रह्माख एव श्रीवेदव्यास्तजीका वर्षों बाद मृत अठारद अक्षौहिणी
सेनाका आयाहन करके प्रत्यक्ष दिखाना और बातचीत करा देना
तथा श्रीभरद्वाजजी एव श्रीकपिलदेवजी आदिके जीवनम अष्टसिद्धियेकि
चमत्कारकी घटनाएँ इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं ।
ऐन्द्रियिक उन्नति
इसी प्रकार हमें इन्दियोंकी भी उन्नति करनी चाहिये ।
इन्द्रियोंमें फिशुद्धता, नीरोगता, तेज; ज्ञान; बल, दाक्ति और
योग्यताका बढ़ना इन्द्रियोंकी उन्तिं है ।
मनुष्यो उचित है कि अपनी वाणी, कान, नेत्र आदि
इन्दि शुद्ध बनावे । सत्य, प्रिय, हित ओर मित भापणसे तया
भगवानके नाम-नप, रीखगुण-गन ओर सत्-शाक्लोके खाप्यायदूप
बाणीके तपसे वाणीकी झुद्धि होती है और इसके नरिंपरीत भाषणसे वाणी
अपरमित्र होती है । इसी प्रकार कानि द्वारा उपदेर्रद, हितकरं
ओर सहुण-सदाचार तथा भक्ति, ज्ञान, वैरण्यकी वाति सुननेसे
का्नोकी शुद्धि होती है और इसके विपरीत पर-निन्दा, दूसरोंके
दुगुण-दुसाचार तथा व्यर्थकी वतिं सुननेसे कान दूपित होते है ।
इसी तरह नेत्रेकि द्वारं अच्छे पुर्पोका दर्खन केसे, दूरके गुण
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