आर्य्य सिद्धान्त विमर्श | Aryya Siddhant Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० प्रथम आआय-विदत्सम्मेलन अर्थो' में नहीं, बल्कि विशेष अ्थो' में आता है। क्योंकि वह्‌ नियमबद्ध ओर संगठनशील समाज है । इसके अपने मोलिक नियम ओर सिद्धान्त हैं । इनके मानने वाले ही इस के सभासद रह सकते हैं । समाज शास्त्र के विद्वान इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भिन्न-भिन्न अथवा विरोधी विचारों- वाले मनुष्यों के समूह से कभी कई नियमबद्ध और संगठनशील समाज बन ओर संगठित रह दही नहीं सकता, ओर न इनकी अधिक से अधिक संख्या होने पर भी इनका कोई सामाजिक बल हो सकता है । चाहे वह सोशल, पोलिरिकल ओर धामिक, कोई भी समाज क्यों न हो, केवल निशित मन्तव्य ओर कतव्य ही है जो किसी नियमबद्ध समाज को वना, दृढ और संगठित रख सकते हैं। यह तो हो सकता है कि कोई नियमबद्ध संगठन- शील समाज भी अपने किसी नियम व सिद्धान्त को अशुद्ध और अनुपयोगी जान कर बदल दे, परन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि भिन्न-भिन्न तथा विरोधी विचारों वा निश्चित मन्तव्यों के रखन वाले परस्पर संगठित रह कर किसी नियमबद्ध समाज को बना ओर संगठित रख सके । यरि केवल आचाग्पद्धति के अनुकूल आचारण अथवा सदाचार को ही आयसमाज के सभासद रहने का नियम मानेंगे, तो इस नियम की अतिव्याप्नि संसार भरके मत-मतन्तगों में रहने बाले सदाचारी मनुष्यां मे हो जायगी, क्योकि आयसमाज की आचारपद्धति




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