झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई | Jhansi Ki Rani Laxmibai

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Jhansi Ki Rani Laxmibai by दत्तात्रय बलवंत पारसनीस - Dattatray Balwant Parasnis

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घ महारानी ठक्ष्मीबाइ | पतिकी प्रेंम-गाँठ दृद़ बनी रहे । पतिग्रहमें मनूबाइका नाम लक्ष्मी बाई रक्‍्खा गया । बिवाढके पश्चोत्‌ गंगाघररावने लडकीके पत्त- वालोको बहुत कुछ पुरस्कार दिया । मोरो पंत को भी ०० रुपये मासिक देकर माँसी-दरबारमें एक सरदारीकी जगह दी गई । मोरोपतकी प्रथम पत्नीका देहान्त हो गया था । उन्होने झब तक अपना दूसरा विवाह नही किया था परन्तु मॉसी आने पर सुछ- सरायके वासुदेब शिवराव खानवलकरकी कन्याके साथ उन्होंने अपना द्वितीय विवाह किया । सोरोपतकी इस पत्नीका नाम चिमनाबाई था । यहाँ पर अब माँसीका भी थोड़ासा बणन करना आझावश्यक जान पड़ता है । क्योकि पाठकोकां कहीं यह भ्रस न हो जाग कि महाराष्ट्र ज्ञाह्मणोंका राज्य बुन्देडखड़ प्रान्तमें किस प्रकार हुआ वे तो दक्षिणके महाराष्ट्र-देश-निवासी हैं । इसलिए उनके यहाँ ब्ानेका कारण और राज्य स्थापित करनेका वर्णन करना कुछ अप्रासगिक न होगा । मध्यभारतमे बुन्देखखंड६४ नामका एक के बुंदेलखंड अ्थाठ खुदेले लागोंके रदनेकी जगद । बदेखे राजपृतों की एक जातिका नाम है। ये लाग बुदेले नामसे क्यों प्रसिद्ध हुए इसकी एक ख्यायिका यदरै -- काशीनीमें जिस समय चकत्रियोका राउय था उस समय उनके वेशमें पंचम नामक एक राजा हुआ । उत्तका उसके भाइयेंनि शाउपसे बाहर निकाल दिया । वह दुःखित घूमता-फिरता विंध्याचल पर्वत पर चिध्यवासिनी देवीकें मत्दिरमें गया भ्रौर वहाँ देवीकी झाराधना राउए- पाप्तिके लिए करने लगा । बहुत दिने तक तपश्चर्या करनेके परचात देवी के प्रसन्न करनेके लिए उसने अपना सिर काटकर देवीकें झागें रख दिया । इस चातसे प्रसन्न दोकर देंवीने उसके जीविंत कर दिंधा ओर उसे बर्दान




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