गीता चिन्तन | Geeta Chintan

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Geeta Chintan by स्वामी श्रीगीतानन्दजी महाराज - स्वामी श्रीगीतानान्दजी Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घटक पढ़े हुए भावों पर बारम्बार मनव व चिस्तन करते का भी स्वभाव बना ले । प्रियवर ! जीवन में प्रापने ध्रनेकों को धज़माया होगा; घाजमाये हुए को पुन: पु: ध्ाजमाने में भी शायद श्राप पीछे,नह्दीं हे होंगे ! परम्तु-क्या स्थायो शान्ति,मिली ? कया श्रापका जोवन श्रापके लिये सुख- प्रद एवं निष्कण्टक बन गया ? शायद नहीं '! तो धाइये; प्रस्तुत ग्रत्थ को भ्रपंना जोवन पएथ-प्रदर्शक मान कर ,इंसमें वरशित श्रत्यन्त कल्याणकारी एवं जीवन में नवीन वंद्वार व निंखारे लाने वाले सदी की * भी एक बार, झाज़मा, कर द्रेखिये श्र्थातू . भग्रवाव जो के ध्नमोल कथन के श्रमुरूप भी शपना जीवन बना कर देखिये । सौगन्घ भगवादुूजीके युगल चरणोकी ! श्वापकें जीवनें में ज्नानत्दकी नई लहर भरा जायेगो श्रौर शापका रोम-रोम 'वेन्दा' थोगुरंदेवंजी' के इन श्रनंमोल शब्दोको सस्ती में भेर.कर गुनगुनाने लग जायेगा-- गीता की घाखी से-दो ज्ञाच मिल गया । _ खुशी-खुशी जीनेका सामान मिल गया ॥ प्रमु जी को वासी ने हंसना सिखाया, ' दुखों.. घर - फों को. दूर भमाया । -सुश्कराते रहने का फ़रसान' मिल गया; छुधियों हे भरा इक जटाब सिख घया ॥




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