भारतीय चिंतन | Bhartiya Chintan

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Bhartiya Chintan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बआत्य तथा आये ११ यस्मिन्‌ सर््बाणि भूतान्यात्मेवामूष्धिजानतः । तत्र का मोषः नकः शोक एकत्वममुपश्यतः ॥५॥ अर्थात्‌ वइ चलता है। वह नहीं चलता । वद दूर है। वह निकट है। भीतर है | सब में है| बाहर है| जो सब प्राणियों को अपने में ही अपने जैसा जानग है। वहाँ मोह कहाँ जहाँ समभाव से देखता है | अज्ञानी ही अंधतमित्र नामक नरक में जाते हैं। जो विद्या और अविद्या को जानता है' वही मोक्ष को प्राप्त करता है। वे अंधकार में डूबे हैं जो असंभूति ( अनादि प्रकृति ) की उपासना करते हैं। उनसे भी अंधेरे में वे हैं जो सम्मूत ( प्रकृति-जन्य-कार्यों) की उपासना करते हैं। इससे प्रगट होता है कि ऋषि इते छोड़ देना चाहते ये| श्रागे कदा है; जो कार्य और कारण जगत्‌ को जानता है वह जानता है, मृत्यु और बिनाश से तरण करना | सत्य का मुख सोने के पात्र से ठेका हुआ है। सूर्य समान तू ज्योति के पथिक, सत्यधर्म के लिये उसे खोल । केनोपनिपद्‌ में सांसारिकता को छोड़ने पर और मी प्रकाश डाला गया हं | श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह्‌ चाचंसडप्राणस्य प्राणः । चञ्चुपश्चज्धरतियुच््य धीराः प्र त्यास्माल्लोकादखता भवन्ति ।॥ २॥ कान का कान्‌, मनका मन, वणौ का वाणु, प्रण॒ का पर, चछ का चकु छोडकर धीर मरकर लोक से श्रत दो जाता दै) इस प्रकार सबके पीछे कुछ दे जिसे यहाँ छोड़ना आवश्यक हे | ओर अंत क्या है ! जन्म-सृत्यु के बंधनों से मुक्ति । जो पहले से उपदेश कर गये हैं उन्होंने बतावा दे कि न वहाँ आँख चहुँचती, न वाणी, न मन, न ज्ञान, अनुभव से परे, इन्द्रियों से दूर লু




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