मुख वस्त्रिका सिद्धि | Mukh Vastrika Siddhi
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ३ )
ऐसे छोगों के छिये कुछ छिखकर समय एवम् समाज के द्रव्य
का च्यय करना रेखक अनुचित समञ्चता है, परन्तु जो छोग सरल
हृदय के हैं, जिन्हें सत्या-सत्य के विचार करने की इच्छा है, उनके
लिए और मुख्यतः सखसमाज रक्षणार्थं ही यह प्रयास कियां
जारहा है ।
विक्रम सम्वत् १९६१ से नाभा रहर की राज्य सभाम सात
मध्यस्थो के समक्ष नाभा नरे की अध्यक्ठता मे जनसमुदाय के
सासे प्रसिद्ध विद्वान गणिवयं प्री उदयचन्द्रजी महाराज साहव
का श्री वम विजयजी ( मूरिंपूजक ) साधु के साथ साखा
हुआ था। जिसमे गणिराज की शानदार विजय ( जीत ) हुई,
सौर वछभ विजयजी घुरी तरह पराजित हुए ( हारे )। जिसका
लिखित फेसला ज्येप्ठ झुक पच्चमी को मध्यस्थों व नाभा नरेश के
हस्ताक्षरों से दिया गया था; और जिसमें गणिराज की विजय
घोषित की गई थी, वह उसी समय गुरुमुखी भाषा में छपकर
जनता में वितरण भी हो चुका ।
अपनी इस करारी हार से लज्नित हो हमारे मूर्तिपूजक चन्घु
अपनी खोई हुई इल्नत को पुनः प्राप करने, स्वसमाज को अन्ध-
कार में रखने, तथा भोली-भाली जनता में अपनी धाक जमाने के
लिए कोई मागे दूने रगे! आखिर आकाश पाताल एक करने
और पानी की तरह द्रव्य बहाने पर ठग-भग डेढ़ वर्ष के वाद
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