धर्म और दर्शन | Dharma Aur Darshan

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Dharma Aur Darshan by बलदेव उपाध्याय - Baldev upadhayay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर्मे वेद में -देवतातेश्व के-साष्य में इस. मंत्र का - उछेख किया है । ऋग्वेद का अमाण इस विषय में नितान्त सुस्पष्ट दे । ँ देवतागण को क्ग्वेद में असुर कहा गया हैं । असुर का अथे है असुविशिष्ट अथवा प्राणदाक्ति-सम्पन्न । इन्द्र चरुण सविता उषा आदि देवता असुर हैं । देवताओं को बरू-स्वरूप कहा गया है। देवतारण अविनश्वर धाक्ति मात्र हैं। वे आतस्थिवांसः स्थिर रदनेवाले . अनन्तासः अनन्त अजिरास जउरवः विश्वतस्परि औाधव1९ कहे गये हैं । वे विश्व के समस्त प्राणियों को व्याप् कर स्थित रदते दें । उनके किए सत्य घ्लुच नित्य भ्रभ्ति दाब्दों का प्रयोग किया गया उपछब्घ दोता है । इतना दी नहीं एक समस्त सूक्त ० वे० तृतीय मण्डछ ५५ वाँ सुक्त में देवताओं का असुरत्व एक ही माना गया है। असुरव्व का अर्थ है बरू या सामध्ये । देवताओं के मीतर विध्व- मान सामध्य एक ही है शिर-सिश्न स्वतन्थ्र नहीं है। इस सूक्त के प्रत्येक मन्श्र के झन्त में यद्दी पद बार-बार जाता है--मददू देवानास- सुरस्वमेकमू देवां का मददत्‌ सामध्य एक ही है । एक दी महामदिस- शाठिनी शक्ति के विकसित रूप दोने से उनकी शक्ति स्वतन्त्र नदी है प्रत्युत उनके भीतर विद्यमान दातति एक ही दे । जोण सोषधियों में नवीन उर्पन्‍न दोनेवाछी लोषधियों में पछघ तथा पुष्प से सुदोमित सोषधियों में तथा गर्भ धारण करनेवाठी ओषधियों में एक दी शक्ति विद्यमान रददती है । देवों का सददत्‌ सामथ्य चस्तुतः एक ही है । । ऋग्वेद में /ऋत की बड़ी मनोरम कब्पना हे । ऋत का अर्थ है सत्य जविनाधी सत्ता । इस जगत्‌ में ऋऋत के कारण दो सधट को १ तदू देवस्य सबवितुः असुरस्य प्रचेतसः ४1१३१ पजन्यः -असुरः पिता नः ५।८३.६ महदू विष्णोः इन्द्रस्य असुरस्य नामा रे। रेड ४ 0.




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