लोक - जीवन | Stree Aur Purush

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर्मे-संस्करण श मानव-जीवन का सब इृष्टियों से विचार करनेवाठा अगर कोई है तो धर्म ही है। जीवन का स्थायी या अस्थायी एक भी अंग ऐसा नहीं है जिसका विचार धर्म का कर्तव्य न हो । इसलिए धर्म मनुष्य के सनातन जीवन जिंतना ही अथवा उससे भी अधिक व्यापक होना चाहिए ओर चूकि समस्त जीवन उसका छषेत्र है इसछिए अत्यन्त उत्कट रूप में वह जीवित रहना चाहिए । संसार मे आज जो मशहूर धर्म है वे अधिकाश मे ऐसे ही व्यापक घर्म है । अपनी स्थापना के वक्त तो वे सब जीवित ही थे । परन्तु धार्मिक पुरुषों ने वाद मे भी उनके चेतन्य को बारम्बार जागृत करके उन्हें जीवित रक्‍खा है । अंगीठी की आग स्वभाव से ही जिस प्रकार बारस्वार मन्दी पड़ जाती है ओर बार-बार कोयले डाठकर और फुँक मारके उसका संस्करण करना पढ़ता है उसे जीवित या जछते हुए रखना पड़ता है उसी तरह समाज मे धर्म-तेज को जागृत रखने के लिए धर्मपरायण समाज-पुरुषों को उसे फूकने और उसमें इंधन डालने का काम करना पढ़ता है। समय-समय अगर यह काम न हो तो धर्म-जीवन क्षीण ओर विक्ृत होजाता है ओर धर्म का घीण एवं विक्त स्वरूप अधर्म जितना ही नुकसान करता है । धर्म को चेतन्य और प्रजन्वलित रखने का काम धर्मपरायण व्यक्ति ही कर




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