रविन्द्र -साहित्य भाग 16 | Ravindra - Sahitya (bhag - 16)

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Ravindra - Sahitya (bhag - 16) by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धृतराष्ट्‌-- गान्धारी-- धृतराष्टू-- गान्धारी-- धृतराष्ट्‌-- गास्धारोका अवेदन ; काल्य लयागरदउसेत्तो रह्‌ जायगा क्या ४ ध तव । कया दे देगा धर्म तुम्हें ? दु खभोग नित्य नव । पुन्न-पुख राज्य-सुख बाजीमें अधर्मैकी जो जीते गये, उन्हें कब तक रख सकते हो, दो-दो कौटि छातीसे लगाये हए ४ हाय, भिये, धर्मेव कौट दही दिया था मैने इसीलिए यूतबद्ध॒ पण्डवोका हारा हुआ राज्य-धन । उसी क्षण पितृस्नेहं - गुञ्ञनकी न ~ भन भरने लगी यों कान--“कर्‌ क्या रहा तरू, अरे धर्म॑ ओः अधमकी दो स्वोँपै जो पैर धरे एकसाथ, उसकी जर कटां 2 हए अव एक वार कौरव ये पाप- खोत - मग्न तव मिथ्या दी है धमते मिलाप करनेका स्वाम; पाप-द्वारपर पाप सादाय्य है रहा मांग) मूख भाग्यहीन बुड्डे, कर क्या तू वेढा आज दुबैल द्विधामें पड £ फेर देनेसे भी राज घोर ~ अपमान-जन्य घाव पाण्डवोंके जीका पुर न सकेगा; काम आगमे करेगा धीक! त्मताक्रा असन अपमानितोके हाथपर रखना है मौत्तको बुलाना जान-बूसकर । छोड़ी मत क्षमतावानोंकों येके स्वल्प पीडा, उनको छुचल दही दये) पापे न करो कीड़ा व्यथे ! यदि पापको बुक ही कये सानुराग, उसे अपनाओ परे तरसे दी दिवा त्याग 1 ९१८




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