गहरे पानी पैठ | Gahare Pani Paith

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक डुबकी जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पठ । मं बौरी दढन गई, रही किनारे बठ॥ महात्मा कबीरका यह दोहा बहूत प्रसिद्ध ह । अथं भी सीधा है-- विद्याधियोंको केवल यह बताना पड़ता है कि बौरी' का अथं बावरी! था पगली है । इसके बाद विद्यार्थी बड़ी सरलतासे अधें कर देता हैः-- “जिसने खोजा, उसने गहरे पानीमें उतर कर ही पाया । में ऐसी पागल कि ढूढ़नेंको गई तो किनारेपर बैठ कर ही रह गई ।”' इस तरह उक्त दोहेका अथं तो शब्दोके किनारेपर बैठकर ज्ञलक आता है, पर भाव समझनेके लिए इस ज्ञान-वापीमें गहरे उतरना पडता हं । कबीरकी सारी जीवन-व्यापी साधनाका तत्व इस दोहेमें निहित ह । कीर, तत्त्वके जिस स्पष्ट दर्शन ओर गृढ बातको सादगीसे समञ्चा देनेके लिए विख्यात ह, उसका उदाहरण भी इस दोहेमं मिलता हं । कबीरका कवि! भी अपनी समस्त भावुकताकं साथ दोहेके भावमं व्याप्त हं । कबीरकी प्रणयाकूल आत्मा अपने प्रियतम, अपने भगवान्‌की खोज- मे निकली तो दूनिया भरम भटक आई--घाट-घाटपर झाँक आई । पर प्रियतमकी प्राप्ति नहीं हुई । भगवान्‌ तो घटके अन्दर व्याप्त हैं, हृदयकी इस वापीमें बिना उतरे, बिना चूडान्त डूबे वह कहाँ मिलेंगे ? भगवान्‌ तो शेषनागकी राय्यापर क्षीरसागरमें दायन करते हें न ? हाय, में कैसी बावली हूँ जो ऊपर ही ऊपर देखती रही, किनारे ही किनारे बैठी रही । तात्पयं यह, कि जितना सोचते जाइये, गहरे उतरते जाइये, उतना ही अथं ओर ममं उजागर होता चला जायेगा । धमे, कर्म, अध्ययन, भोग ओर योग॒ सबकी सफलताकी कुंजी ओौर आदेश-वाक्य एक ही है-- “गहरे पानो पेठ । जब महात्मा कबीरने उक्त दोहेमं दूसरा पद “गहरे पानी पैठ' डाला




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