न्याय विनिश्चय विवरणम | Nyay Vinischay Vivaranam

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Nyay Vinischay Vivaranam   by महेंद्र कुमार जैन - Mahendra kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ न्यायविनिश्चयविवरण शान पर्याय के द्वारा अवह्यम्भाषौ है । शान पर्याय कौ उत्पत्ति का जो कम टिप्पणी मे दिया है उसके भनु- सार भी जिस किसी वस्तु के पूर्णरूप तक शानपयांय पहुँच सकती हे थदद निर्चिवाद है । जव शान वस्तु के भनन्तधर्माष्मक विराद्‌ स्वरूप का यथार्थ ज्ञान कर सकता है भौर यह मी भसम्भव नहीं हे कि किसी आत्मा में पेसी शान पर्याय का विकास हो सकता है तब वस्तु के पूर्णरूप के साक्षात्कारषिषय कप्रइन का समाधान हो ही जाता दै । अर्थात्‌ वि्युद्ध शान में घस्तु के विराद्‌ स्वरूप की झांकी भा सकती दे और ऐसा विज्युदध शाम तच््वद्रष्टा ऋषियों का रहा होगा। परन्तु वस्तु का जो स्वरूप शान में झलकता दे उस सब का दलों से कथन करना असम्भव है क्योंकि शब्दों में वद शक्ति नहीं है जो अनुभव को अपने हारा जता सके । सामान्यतया यह तो निश्चित है कि वस्तु का स्वरूप ज्ञान का शेंय तो है। जो भिन्न भिन्न जातां के द्वारा जाना जा सकता है वह एक क्षाता के द्वारा भी निर्मछ ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता दे । लात्पर्य यह कि चस्तु का अखण्ड जनन्तबमत्मक विराट्स्वरूप अखण्ड रूप से शान का विषय तो बन जाता दे और तत्वज ऋषियों ने अपने मानसज्ञान और योगिज्ञान से उसे जाना भी होगा । परन्तु शाब्द की सामय्य इतनी अत्यस्पे है करि जने हुए वस्तु के धर्मो मेँ अनन्त बहुभाग तो अनभिधेय है अर्थात्‌ शब्वु से के ही नहीं जा सकते । जो कष्टे जा सकते ह उनका भनन्तवाँ भाग ही प्रजापनौय अर्थात्‌ दूसरों के लिए समझाने छायक होता है । जितना प्रज्ञापनीय है उसका अनन्तवाँ भाग शब्द-श्रुतनिवद्ध होता है । अतः कदाचित्‌ दु्धनप्रणेता ऋषियों ने वस्तुतस्व को अपने निर्मल ज्ञान से अखण्डरूप जाना भीहोतो भी एक ही वस्तु के जानने के भी इष्टिकोण जुडे जुदे हो सकते हैं । एक ही पुष्प को वेज्ञानिक, सादित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण आखों से समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सौम्दयं पर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोग पर ही विचार करता है। कवि को उसके रासायनिक मिश्रण की कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, वह तो केवकू उसके सौन्दर्य पर मुग्ध है और वह किसी कमनीय कामिनी के उपमालंकार मे गृ थने की कोमरु कल्पना से आकङिति हो उठता है। जब कि वैचजी उसके शुणदोषों के विवेचन में अपने मन को केन्द्रित कर देते हैं । पर सामान्य जन उसकी रीमी रीसी मोहक सुवास से वासित होकर ही अपने पुप्पज्ञान की परिसमाप्ति कर देता है। तात्पयं यदद कि घस्तु के अनन्त धर्मांत्सक विराट्स्वरूप का अखण्ड भाव से ज्ञान के द्वारा प्रतिभास होने पर भी उसके विवेचक अभिप्राय साथ दी इस चैतन्यशक्तिका कलईवाले कांचकी तरह दुर्पणवत्‌ परिजभन दो गया है। इस दर्पणवत्‌ परिणमन- बाले समयमें जितने समय तक वह चैतन्य दर्पण किसी जे यके प्रततबिम्बकों लेता है णह. रते जनता है तव तक उसकी वह साकार दरा ज्ञान कदलाती है और जितने मय उषी निराकार दशा रहती ड -बह दर्णन कहौ भाती है । इस परिणामी वैतन्यका सांस्यके चैतभ्यसे भेद स्प है । घास्य चैतन्य सा 'विकारी परिणमनदत्य और कूटस्थ नित्य है जब कि जैनका चैतन्य परिणमन कटनेवाग परिणार नेल है । श्राखय- के यहीं बुद्धि या शान ग्रहति धमे है जब्र कि जैनसम्मत ज्ञान चैतथ्वकी. हो योग हैं । सरांख्यका चैतन्य संसार दशापरे मी के याकार परिच्छेद नहौ करता जद कि जनश्च चैतन्य डपाधि दशामें शेयाकार परिणत होता दै उन्हें जानता दै। स्थूड मेद तो यद है कि इ.न जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय दे जब कि सांख्य- के यहाँ प्रकृतिकों । इस तर शान चैतन्यकी ऑपाधिक पर्याय है और यह संसार दुशामें बराबर चालू हतौ है जब दर्शन भवस्था होती है तव ज्ञान अस्था नहो होती शौर जब ज्ञान पर्माय होती होत दे तब दु्शन पयाय नदीं। शानावरण और दर्सनावरण कर्म इन्दीं पर्यायोंको हीनाधिक रुपये आइत करते हैं और इनके कयोपदाम और कयके अनुसार इनका अपूर्ण और पूर्ण विकास होता दै। संसारावस्थामें जब शानावरणुका पूणं क्षयं हो जाता दे तब चैतन्य दक्तिकी साकार पर्याय हान भपने पूर्ण पमे बिकाको प्रात होती है । १ (पष्णवणित्ना भावा अणंतभागो इ भगभिलप्याणं । पण्णवभिज्यणं पुन अणंतभागो घुदणिवद्धो ॥”-गो० जीवन गा 1३३ ।




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