समणसुत ग्रन्थ | Samansut Granth

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Samansut Granth by मुनि श्री सुशीलकुमार शास्त्री - Muni Shri Sushilkumar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गणौ का समग्र अनुभव एक साथ कर ही नही पाता, अभिव्यक्ति तो दूरकीं वात है । भापा की असम्थता और शब्दाथ की. सीमा जहाँ-तहाँ झगडें और विवाद पंदा करती है । मनुप्य का अह उसमे और वृद्धि करता है । लेकिन अनेकान्त समन्वय का, विरोध-परिहार का मागं प्रशस्त करता है । सवके कथन में सत्यार होता है ओौर उन सत्य।शो को समञ्चकर विवाद को सरलता से दूर किया जा सकता है । जिसका अपना कोई हठ या कदाग्रह नही होता, वही अनेकान्त के द्वारा गृत्थियो को भलीभाँति सुलझा सकता है । यो प्रत्येक मनुष्य अनेकान्त मे जीता है, परन्तु उसके ध्यान मे नही आ रहा है कि वह॒ ज्योति कहौं है जिससे वह प्रकाशित है । आंखो पर जव तक आग्रह की पट्टी वेधी रहती है, तव तक वस्तुस्वरूप का सही देन नही हो सकता । अनेकान्त वस्तु या पदाथं को स्वतव्र सत्ता का उद्घोष करता है । विचार-जगत्‌ मे अहिसा का मृतंरूप अनेकान्त है । जो असक होगा वह्‌ अनेकान्ती होगा ओौर जो अनेकान्ती होगा, वह्‌ अहिक होगा । आज जेनधर्म का जो कुछ स्वरूप उपलब्ध है, वह महावीर की देशना से अनुप्राणित है । आज उन्हीका धर्मशासन चल रहा है । महावीर ददन ओर धर्मं के समन्वयकार थे । जान, दर्शन एव आचरण का समन्वय ही मनुष्य को दु ख-मुक्ति की ओर ले जाता है । जानहीन कमें और कमंहीन ज्ञान--दोनो व्यथं हं । ज्ञात सत्य का आचरण ओर आचरित सत्यका जान--दोनो एक साथ होकर ही साथेक होते हं । वस्तु स्वभाव धर्म जेन-दर्णन की यह दें वडी महत्त्वपूर्ण है कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म दै--वत्थु सहावो धम्मो । सुष्टि का प्रत्येक पदार्थं अपने स्वभावानुसार प्रवतंमान दै । उसका अस्तित्व उत्पत्ति, स्थिति ओर विनाग से युवत है । पदां अपने स्वभाव सं च्यत नही होता-- वह जड हो या चेतन । मत्ता केरूप मे वह्‌ सदेव स्थित है, पर्याय की अपेक्षा वह निरन्तर परिवतेनजील है। इसी चरिपदी पर सम्पूणं जेनदशेन का प्रासाद खडा है । इसी त्रिपदी के आधार पर सम्पूर्ण लोक-व्यवस्था का प्रतिपादन जैन-दर्दन की घिश्ेषता है। पड्द्व्यो की स्थिति से स्पष्ट है कि यह लोक अनादि अनन्त है, इसका कर्ता-धर्ता या निर्माता कोई व्यवित्त-विशेप या ~ पनरह -




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