विषैला समाज | Vishaila Samaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विषेला सर्माजं १० पि काका का कान लक का कक कान ““चाचाजी पुष्पाको गोदमें उठाकर प्रतिज्ञाकी श्रौर तब मैंने देखा दादाजी, बड़ी माताजीका चेहरा खुशीसे तमतमा उठा कुछ क्षणके लिये उनकी मुख-श्री तेजोमयी हो उठी | में उनके रोग ग्रसित जजर शरीरमें इस श्राकस्मिक परिवतनकों देखकर स्तंभित हो गया ।” दीवानजौने श्राशचय प्रगट करते हुए कहा--''लो श्रच्छा; मैं तो श्रच्च जाता हूँ तुम सब रजिम्टर श्रौर जरूरी कागजात संभालकर श्राल- मारियोंमें रख देना श्रौर ताला लगाकर ताली घरमें दे श्राना, देखना कोई चीज बाहर न रह जाय''--कदते हुए दीवानजीने श्रपनी छड़ी उठाई श्रौर वहांसे उठकर सीड़ियोंपरसे होते हुए; नीचे उतर गये । सामने एक छोटी-सी बगीची थी, उसीमें जाकर वे टददलने लगे । उनके चले जानेके बाद छेदीलाल भी श्रपने स्थानसे उठा श्रौर कुछ बेतुका-सा गाना गुनगुनाता हुश्रा सब रजिस्टर श्रादि एक-एक करके श्रालमारियोमे रखने लगा । जब सब रख चुका तो छारी श्राल- मारियोंमें भली प्रकार देखभालके ताला लगाया श्रोर दीवानखानेका दरवाजा बन्द करके वह्दांसे चल दिया । दीवानखानेसे नीचे उतरकफर वह सीधा नद्दरकी तरफ जाने लगा, कछु दूर तक पानीकी बहावकी तरफ चलते रहनेके बाद उसे एक घाट मिला, जहां गांवकी कूछ स्त्रियां एकत्र होकर पानी भर रही थीं । वहां पहुँचकर छुदीलाल भी घाटकी पक्की दीवारपर खड़ा हो ठनकी तरफ ताका भकीं करने लगा । उक्षके मुखपर इत समय भी वही गना था जो श्रनके कुछ छण पहले वह दीवानखानेमे गा रहा था । उसके ऊपर




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