कुरुक्षेत्र | Kurukshetra
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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“हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
दीखता है स्वप्न श्रन्तःशुन्य-सा,
जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
भर्थ जिसका झव न कोई याद है।
“झा गये हम पार, तुम उस पार हो ;
यह पराजय या कि जय किसकी हुई ?
व्यंग्य, पश्चात्ताप, अन्तर्दाह का
धन विजय-उपहार भोगो चेन से।”
हषं का स्वर धूमता निस्सार-सा
लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
प्रौ युधिष्ठिर सुन रहे भ्न्यक्त-सा
एक रव मन का कि व्यापक शुन्य का।
*खत से सिच कर समर की मेदिनी
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
भोर ऊपर रक्त की खर धार में
तैसे है भ्रंग रथ, गज, वाजि के।
किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
शेष क्या है? व्यंग्य ही तो भाग्य का ?
चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
तत्त्व वह करगत हुमा या उड़ गया ?
“सत्य ही तो, मुष्टिंगत करना जिसे
चाहता था, दात्रुप्रों के साय ही
उड़ गये वे तत्व, मेरे हाथ में
ध्यंग्य, प्दचात्ताप केवल छोड़कर ।
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