आयार - सुत्तं | Aayar - Suttam
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
238
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१३.
१४.
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२३.
२४.
द्वितीय उद्देशक
लोक मे मनुप्य पीड़ित, परिजीर्ण, सम्बोधिरहिन एवं अज्ञायक दं ।
इस लोक में मनुप्य व्यथित है ।
तू यप्र-तत्र पूथक्-पूृथक् देख ! आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकाय को ] दुःख देते
हैं ।
[ पृध्वीकायिके ] प्राणी पृथक-पथक हैं ।
तू उन्हें प्रथक-प्रथक लज्जमान/हीनमावयुक्त देख ।
ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपुर्वक कहते ह -- 'हम अनगार ह ।
जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा पृथ्वी-क्म की क्रियाम संलग्न होकर
पृथ्वीकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करते हैं ।
निश्चय ही, इस विपय में भगवान् ने प्रज्ञापूवंक समकाया है |
और इस जीवन के लिए
प्रयांसा, सम्मान एवं पूजा के लिए,
जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए
दुःखों से छूटने के लिए
[ प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता दै ।]
वह स्वयं ही पृध्वी-णस्र ( हल आदि) का प्रयोग करता है, दसय से
पृथ्वी-णर्त्र का प्रयोग करवाता है भौर पृथ्वी-शस्त्र के प्रयोग करनेवाले
का समर्थन करता है ।
वह् हिमा अदित के लिए है और बही अवोचि के लिए है।
वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्म-मार्ग पर उपस्थित होता है ।
श्स्त्र-परिज्ञा ९
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