आयार - सुत्तं | Aayar - Suttam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३. १४. ९ ५ हि ९ ६) द २३. २४. द्वितीय उद्देशक लोक मे मनुप्य पीड़ित, परिजीर्ण, सम्बोधिरहिन एवं अज्ञायक दं । इस लोक में मनुप्य व्यथित है । तू यप्र-तत्र पूथक्‌-पूृथक्‌ देख ! आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकाय को ] दुःख देते हैं । [ पृध्वीकायिके ] प्राणी पृथक-पथक हैं । तू उन्हें प्रथक-प्रथक लज्जमान/हीनमावयुक्त देख । ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपुर्वक कहते ह -- 'हम अनगार ह । जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा पृथ्वी-क्म की क्रियाम संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करते हैं । निश्चय ही, इस विपय में भगवान्‌ ने प्रज्ञापूवंक समकाया है | और इस जीवन के लिए प्रयांसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए [ प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता दै ।] वह स्वयं ही पृध्वी-णस्र ( हल आदि) का प्रयोग करता है, दसय से पृथ्वी-णर्त्र का प्रयोग करवाता है भौर पृथ्वी-शस्त्र के प्रयोग करनेवाले का समर्थन करता है । वह्‌ हिमा अदित के लिए है और बही अवोचि के लिए है। वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्म-मार्ग पर उपस्थित होता है । श्स्त्र-परिज्ञा ९




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