बाहर और परे | Bahar Aur Pare

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Bahar Aur Pare by निर्मल वर्मा - Nirmal Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चाहर श्रौर परे/ १७ थीं, किन्तु उस क्षण स्मृति की श्रजीव भूल-भुलयां से केवल एक तस्वीर बार-वार वाहर थ्रा जाती थी । उन्होंने प्रपना सिर तनिक कंधों की तरफ़ भुका रखा था”** कुछ-कुछ वैसे ही, जब वह गर्मियों की किसी शाम को उदास भाव से घुघली खिड़की पर अपना सिर भुका लेती थीं । मेरा घ्यान वार-वार जुज़ा की तरफ भी चला जाता था । मुके उस पर काफी कोघ रा रहा था कि उसी की चजह से मैं घर वापस नहीं जा सकता श्रौर उसी के कारण मेरा ध्यान माँ पर केन्द्रित न होकर श्रलग-अ्रलग चीजों में भटक जाता है। मुझे याद नहीं, मैं कैसे धूमता-भटकता ब्लानीस्का गली में चला आया । शायद श्रचेतन, आकारहीन स्मृति का कोई खिंचाव रहा होगा या महज कोरा संयोग”'सहसा मैंने अ्रपने को एक छोटे-से मकान के सामने खड़ा पाया । लड़ाई के दिनों में हमारा परिवार उसी घर में रहता था । वरसों , से मैं इस गली में नहीं श्राया था। मकान की भद्दी पीली इमारत बहुत पुरानी श्रौर जर्जरित-सी लग रही थी । जहाँ कभी कार्निस थे, वहाँ शभ्रव महज टूटी-फुटी ई टे बाहर की तरफ भाँक रही थीं । श्री हरादेस्की की दुकान पर श्रव प्रामेन (ार & पाप) का वो लगा था श्ौर ड्राई- क्लीनिंग की दुकान *एजीटेडान-सेंटर' में बदल गई थी मैंचे गली पार की और मकान की घुंघली, चौकोर खिड़कियों को देखने लगा । झाज चौदह दिन वाद यह लिखते हुए सुक्ते उस घर से सम्ब- स्थित सब पुरानी घटनाएँ याद हो श्रायी हैं । जब हमारे शहर जाहोरी पर जमेंनों का कब्जा हुमा था, विक्टर वेशिन्स्की के ट्रक में लदकर हम इस मकान में आये थे । नीचे ड्राईक्लीनिंग की दुकान से एक मीठी-सी गन्घ सारे घर में तिरती रहती थी । झ्रघेरी सीढ़ियों पर सेकड़ों छछदर रेंगते रहते थे, जो भ्रक्‍्सर पैरों के नीचें रपट जाते थे । माँ वेचारी खटमलों से परेशान हो जातीं जो पलंगों में, तस्वीरों के फ्र मों के भीतर, कुर्सियों में, लकड़ी के मतंवानों के पीछे छिपे रहते थे । मकान की चौथी मंजिल में चापेक नाम के एक फोटोग्राफर रहा करते थे, जो अपनी पत्नी को हरदम




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