लघुतत्त्वस्फोट | Laghutattvasfot
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
356
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ लभुरंस्वस्कोट
डॉ० उपाध्यने ठीक ही लिखा है कि यह निणंय करना बड़ा कठिन है कि अमुक्ष गाथाएँ
ग्रन्थकी मूल गाथाएँ रही हैं या पीछेसे उसमे मिला दी गई हैं। उन्होंने प्रवचनसारकी गाथाओंकि
सम्बन्धमे अपनी प्रस्तावनामें विचार किया है ।
वह लिखते हैं--अमृतचन्द्रकी टीकाका उद्देश्य गाथाओंकी दाब्दिक व्याख्या नहीं है। उनकी
टीका एक भाष्यकी तरह है । (जैसा हम पूर्वमें लिख आये हैं) ऐसी स्थितिमें यह स्वाभाविक है कि
वह ऐसी गाथाओंकी परवाह न करें जो प्रवचनसारके विषयमे अपना ठोस और मौलिक आधार
न रखती हों । ~
अमृतचन्द्रने अपने ग्रन्थोंमे अनेक प्राचीन गाथाओंका अनुसरण किया है यद्यपि ऐसी कुछ
गाथाओको उन्होने प्रवचनसारकी अपनी टीकामे स्थान नहीं दिया है किन्तु उनका संस्कृत रूपान्तर
उनके ग्रन्थोमे वर्तमान है । यथा--
एदाणि पंचदव्वाणि उञ्मियकालं तु अत्थिकाय त्ति ।
भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्त ॥
यह् प्रवचनसारके जेयाधिकारमें ४२३ वी गाधाकी जयसेनकृत टीकामें मूल गाथा रूपसे
संगृहीत है । तत्वा्थंसारके अजौवाधिकारमे इसका संस्कृत खूपान्तर इस प्रकार पाया जाता है-
विना कालेन शेषाणि द्रस्याणि जिनपु्धवे ।
पञ्चास्तिकायाः कथिताः प्रदेशानां बहुत्वतः ॥३-४॥
प्रवचनसारके तीसरे मधिकारमे गाथा २९ मे युक्त आहार-विहारकी चर्चा है । जयसेनकी
टीकामे उस प्रकरणमे दो गाथाएँ विद्योष हैं-- दी
पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मांसपेसीसु ।
संत्ततियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं।।
जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि फासदि वा ।
सो किल गिहुणदि डं जीवाणमणेगकोडीणं ।
इन दोनो गाधथाभोका सस्कृत रूपान्तर पुरुषा्थसिद्धयुपायमे है--
आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीसु ।
सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोदानाम् ॥६७॥
आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पुशति वा पिशितयेशीम् ।
स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटिनामू ॥६८॥
इस प्रकारकी गाथाओंको संगति कुन्दकुन्दके प्रबचनसार जैसे संतुलित रचना प्रधान ग्रन्थ
के साय नही बैठती । प्रवचनसारके हौ तीसरे अधिकारमे कुछ गाथां ठेसौ है जो श्वेताम्बर
सम्प्रदायके वस्त्र-पात्रवाद और स्त्रीमुक्ति पर प्रहार करती हैँ वे अमृतचन्द्रकी टीकामे नही है ।
तीसरे भधिकारकी २० वी गाथामे कहा है--'परिग्रहकी अपेक्षासें रहित यदि परिग्रहका
त्याग न हो तो मुनिके चित्तकी निमंलता नही होती । ओौर जिसका चित्त अविशुद्ध है वह् कर्मोका
क्षय केसे कर सकता दै ।
इसकी टीकामे जयसेनने लिखा है कि अमुकं गाथा अमृतचन्द्रकी टीकामे नही है । र्वी
गाथामे कहा है-“उस परिग्रहके होने पर मूर्छा मारम्म असंयम कैसे नही होगा । तथा जो पर
द्रव्य परिग्रहुमे रत है वह् केसे आत्मस्वरूपकी साधना कर सकता है \'
User Reviews
No Reviews | Add Yours...