कवि प्रसाद की काव्य - साधना | Kavi Prasad Ki Kavya - Sadhana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+ परिचय पर्वत श्रौर ,समुद्र की महानता एवं विशालतौाः ने ईंनकी-स्डिकता को उत्तेजना दी । कल्पना के पख उन्मुक्त हो गये । शझ्रपने मन पर श्रमर- कणटक की यात्रा के प्रमाव का यह अब तक अनुभव करते हैं । जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका दै, इनके यहाँ बेनी, शिवदास तथा झन्य कितने ही कवि आया करते थे श्रौर श्रक्छर समस्यापूतिं एवं-कविता पाठ का रखाडा श्राधी-ग्राधी रात तके चलता रहता था । उंडई बन रही है, रसशुल्जे और दूघ-मलाई की दड़ियाँ भरी हैं, कहीं डंड-बेठक तर कुश्ती का बाजार गमं है, तो कही सभा-चातुरी खिलखिला कर हँस री है, कहीं कवित्त पर कवित्त चल रहे हैं, तो कही परिडतों से ज्ञान-चर्चा हो रही है । यदद उन्नीसवी शताब्दी के झलस वैभव का ढलता श्रा जमाना, जो एक च्रोर च्राजकल की गति की अनिङ्चित्तता से रदित था श्रौर दूसरी शरोर श्रौचित्य की सीमा से श्रागे चली गयी फुर्सत की व्यर्थता से लदा था, आखिरी साँस ले रह था और ये फिसाने उसकी श्नन्तिम चिनगारियो की भूलती-खी याद के बचे-खुचे चिन्ह स्वरूप कहीं-कद्दी सुनाई पड़ जाते हैं । पसे मादक श्रौर मोहक वात्तावरण में रहकर कविताएं सुनते-सुनते श्औौर समस्या-पूर्तियों की श्नोखी नोक-भोक, कल्पना की उछल-कूद और श्ङ्धारप्रधान यात्रिक कवि-वैभव का 'लिमनास्टिक' देखते देखते, इनके मन मे भी स्कूतिं हुई । दी हई समस्याश्रो पर, -घर के लोगो....के_. भय से_.. छिपाकर कभी-कभी तुकबंदियाँ जोड़ा करते । एक चार ज, लगमग १५ वषं की अवस्था में, यह बात प्रकट हो गयी, तत छु लिखने लगे । इन्दी दिनो माता का देदान्त हो जाने के कारण इनके हृद्य पर बड़ी चोट लगी । विदग्धता बढ़ गयी श्रौर पीछे अनेक थाराश्रो में फूट निकली एवं साहिस्योपवन को सीचने लगी । संवत्‌ १६६३ था ६४ में (मारतेन्दुः मे पहली - बार इनकी एक कविता प्रकाशित ई । उसके नाद्‌ जत्र न्दुः निकला तव उसमे




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