अपभ्रंश प्रकाश | Apbhransh - Prakash

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Apbhransh - Prakash by देवेन्द्र कुमार - Devendra Kumarविश्वनाथप्रसाद मिश्र - Vishvanath Prasad Mishr

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विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - Vishwanath Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ५ | नागर श्रपभ्रश की है) इसके विपरीत श्रधंमागधी मङतैर श् मागघी अपभ्रंश में प्राङत-जन-प्रचलित-- शब्दौ की, ठेठ शब्दो दि प्रवृत्ति अधिक थी । यह परंपरा पूर्णतया सुरक्षित है । जैनो के झर्धमागधी अपभ्र श या श्वधी भाषा में ठेठ का श्रहण अधिक है| जायसी आदि दिदी कवियों ने अवधी का जो रूप रखा है उसका कारण केवल यही नहीं कि उन्हों ने जनता की भाषा ज्यों की त्यो ले ली; प्रत्युत यह भो है कि उसकी प्रकृति प्राकृत या जन-प्रचलित या तद्व या ठेठ शब्दो की ही है | चुलसीदासजी ने संस्कृत का, शोरसेनी या त्रज का मेल करके उसे सर्वसामान्य त्रजभाषा की प्रतिद्वंद्विता मे खड़ा किया । फल यह हुआ! कि आगे की भाषा ब्रज और अवधी से मिलकर एक मिली-जुली भाषा हो गई जिस खिचड़ी भाषा का व्यवद्दार हिंदी के रीतिकाल या श्डंगारकाल के अधिकतर कवियों ने किया । पश्चिमी अपभ्र श तो नागर हो गया, पर पूवीं अपश्रश याम्य ही जना रहा, उसी प्रवर्ति दी वेसी थी । विद्यापति ठङ्कुर ने कीतिलता मे जिस प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है उसमें पश्चिमी प्रवृत्ति आई तोहै पर पूर्वों अर्थात्‌ ठेठ प्रवुत्ति त्ररानर मिलती है । झपभ्रश का चाञ्य अधिक सामने आने पर इसका विस्तृत विवेचन करने का झवसर अधिकाधिक मिलता जाएगा । प्रपञ्चश का पूरा समय दो भागो मे विभाजित किया जा सकता ई ¦ ९ ४ ९ # उसका एक तो पूवकालिक रूप है श्रौर दूसरा उत्तरकालिक । पूर्वकालिक




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