मरुद्देेवताका मंत्र - संग्रह | Marudhevataka Mantra Sangrah

Marudhevataka Mantra Sangrah by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चीर मस्ती का काव्य ) ( दप) व सुमति: को सु जिंगातु । (कह.रादेडापिण (२१३) सुरयः में प्रचोचन्त 1 ( ऋ. 1५२१६ 3 ( २३२ * ये अपनी भच्छीं घुद्धिमत्ता के कारण जनता में सु- जुद्धिका प्रचार एवं वृद्धि करते हैं, इन सें दरएक सें दिव्य- सावयुक्त बुद्धि निवास करती हे । ये अच्छे विद्वान, उच्च- कॉटिके वक्ता और सुवुद्धि देनेवाठ़े मीं हैं । 7 चुद्धिमानीके साथ इन में साहलिकता भीं पयाप्त मात्रासें विद्यमान है 1 कि साहसापन | धूष्णुया पान्ति । (कच्पापुरा२) ( २१८) ' ये अपने थैथ्रयुक्त घर्पणसामर्थ् से सब का संरक्षण करते हैं । * ये बड़े सामर्थ्यवान्‌ हैं- ५४ सामथ्यवत्ता । शाकिनः में ातां ददुः । (कऋ. ५1५२)१७ ) (२३३) * इन साम्थ्यशाली वीरोंने सुझे सो गायों का दान दिया ।? इस प्रकार इन की दाक्तिमत्ता का वर्णन हे | ये बड़े उत्साही वीर हैं । उत्साह तथा उमंग से लघालब भरे | सखमन्यवः ! सापस्थात । ( क. «1२०1१ ) (दर ) समन्यचः मरुतः ! गावः मिथ रिददते । ( चऋ. «1२०२१ ) ( १०२ ) समन्यवः ! पृथ्ष याथ | (कं. र1३४।३) ( २०१) समन्यव' ! सरुतः नः सचनानि आगन्तन | ( कऋ. राइ४1६ ) ( रे०४ ) (स-मन्यव: ) हे उत्सादी वीरो ! तुम दम से दूर न रददो । तुम्हारी गोएँ प्यारसे एक दूसरेको चाट रही हैं | तुम अन्न का संप्रह करने जाभो । * ख-मन्यवः” का मतल्त्र है उत्साही, क्रोघपूर्ण, जोशीला याने जो दूसरों के किए सपमान को बरदाइत नहीं कर सकतें ऐसे वीर । इन वीरोंसें उम्रता भरी पढी है | उग्र वीर । नकिं येतिरे । उग्ासः तनुप ( ऋ, «1२०१९ ) ( ९३ ) च््घ्थ्छ उन्नाः सरुतः ! त॑ रक्षत । ( कश1६द(८ ) ( रद ) ' ये उम्रस्चरुपवालि वीर भपने शरीरों की कुछ भी पर्वाइ नहीं करते । हें उम्र प्रकृति के वीरो ! तुम उस की रक्षा करों । ये वीर बडे उद्योगी भी हैं। उद्यम में निरत । शिमीवतां शुष्म विस दि। (ऋ. ८1२०३) ( दपे * इत उद्योग सें ठगे वींरों का चल दसें घिदित हे। ! परिश्रमी जीवन बिताने के कारण इन का. बठ बढ़ा- चढ़ा होता है । निरल्स उद्यम करने से जो चल बढ़ता हे वह मरुतों में पाया जाता हे ! ये बड़े कुशल भी हैं । कुशल वीर । ये चेंघसः नमस्य |. (क्र, प'रा१४ ) ( २२९ ) वेघसः ! चः शघे अश्वाजि (कच ५५४६) (रण) सुमायाः मदतः नः आ यांतु ( कऋ. १1१द०1२ ) ( १७३ ) मायिनः तविपीः अयुग्ध्वम्‌ । ( कऋ. १६४1७ ) (११९४) ' ये वीर ज्ञानी हैं, इसलिये इन्हें प्रणाम करो । हे जानी वीरो ! तुम्हारा संघ बहुत सुद्दाता है। ये अच्छे कुशल मरुतू इमारी भोर भाजायेँ । ये कारीगर अपनी दाक्तियों से युक्त हैं ।7 इस प्रकार उनकी कुशढताका चर्णन किया हुआ है । ये चढे कथाप्रिय भी हैं भर्यात्‌ कहानियों सुनना इन्हें घ्रहुत भाता है । कथापरिय । [ हे ] कघप्रियः ! चः सखित्चें कः' ओदते 1 ( क. दाथद१ ) ( छदे ) * हे प्यार से कहानी सुननेवाले वीरो कौनसा मित्र भला तुम्डें प्रिय है । ? कथात्रिय पद का लाधय है भांति भांति की चीरों की कथाएं या चीरगायाएं सुन लेना जिन मच्छा उगता हो। इस कथाप्रियता में ही इन की झरवा का लादिल्नोत रखा हुआ दे | चीमारों के उपचार फरने में भी ये प्रवीण हैं ।




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