सूत्रकृतांग | Sutrakartagh

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Sutrakartagh by स्वामी परमानन्द जी - Swami Parmanand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) कां समय गागम सरचना का काल रहा हे। कुछ विद्धान्‌ इस लेखन के काल का और अग आगमौ के रचना के काल का समिश्रण करदेते हैं और इस लेखन को आगमो का रचनाकाल मानं लेते है} अग आगम भगवान महावीर का उपदेश है, और उसके आधार पर उनके गणबरो ने अगो की रचना की है । अत आगमो की सरचना का प्रारम्भ तो भगवान महावीर के से माना जाना चाहिए 1 उसमे जो प्रक्षेप अश हो, उसे अलग करके उसका समय निर्णय अन्य आधारो से किया जा सकता है । अग मागमो मे सर्वाधिक प्राचीन आचाराग सूत्र का प्रथम भ तस्कध माना जाता है । इस सत्य को स्वीकार करने मे किसी भी विद्धान्‌ को किसी भी रकार की विप्रत्निपत्ति नही हो सकती । सूत्रकृतागसूत्र गौर भगवती सूत्र के सम्बन्ध मे भी यही समझा जाना चाहिए । स्थानागसूत्र ओर समवायाग सूत्र मे कुं स्थल इस प्रकार के हो सकते है, जिनकी नवता एव पुरातनता के सम्बन्ध मे आगमो के विशिष्ट विद्धानो को गम्भीर विचार करके नि्णय करना चाहिए । अगबाह्य जागम मग-बाह्य आगमो मे उपाम, मूल, छद आदि की परिगणना होती है । अग- बाह्य आगम गणघरो की रचना नही है । अत उनका काल निर्धारण जैसे अन्य- आचार्यो के ग्रन्थो का समय निर्धारित किया जाता है, वैसे ही होना चादिए 1 अग- बाह्यो मे प्रज्ञापना के कर्ता आयं श्याम हैँ । अतएव आयं श्याम का जो संमय है, वही उनका सचना समय है । आर्यं षयाम को वीर निर्वाण सवत्‌ ३३५ मे युगप्रधान पद मिला और ३७६ तक वे युगभरधान रहे । अत सूत्र की रचना का समय मी यही मानना उचित है । छदसूत्रो मे दशाश्च्‌.त, वृहत्कल्प मौर व्यवहार सूत्रों की रचना चतुर्दश पूर्वी मश्वाहुनेकीथी । आचार्यं दहु का समय ईसापूवं ३५७ के ब निश्चित है । अत उनके द्वारा रचित इन तीनो छेदसूत्रो का समय भी वह्दी 'होना चाहिए । कुछ विद्वानों का मत है कि द्वितीय आचाराण की चार चूलाएँ ओर पञ्चम चूला निशीथ भी चतुर्दश पूर्वी आचार्यं मद्रवाह की सरचना है । मूल- सृत्रो मे दश्व॑कालिक की रचना आचायें शयभव ने की है, इससे किसी भी विद्वान को विप्रतिपति नही रही । परन्तु, इसका अथं यह होगा कि दशवेकालिक की रचना द्वितीय आचाराग ओर निशीथ से पहले की माननी होगी । द्वितीय आचा- राग का विपय भौर दश्वैकालिक का विपय एक जैसा ही है, भेद केवल है तो सक्षेप गौर विस्तार का, गद्य गौर पद्य का एव विषय की व्यवस्था का । तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव, माषा तथां विपय अरतिषादन की शैली दोनो की करीव-करीव एक ही है । उत्तराध्ययन सूत्र के सम्बन्ध मे दो मत उपलब्ध होते है--एक का कहना है कि उत्तराच्ययन सूत्र किसी एक की




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