साँचा | Saanchaa

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Saanchaa by प्रभाकर माचवे - Prabhakar Machwe

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वातिक हवा म किसी ने जलते मुदं कौ बास मर दी; जेसे उस सुनहली धूप में खेलती हरियाली में फुदकती गौर्या के पांव किसी ने नोच डाले; जैसे दूर पर बहनेवाला पहाड़ी भरना उलट परौ पहाड़ म सिमिट गया तौर ठंडा हो गया--जस गया । जीवन के तितलीधंखी श्रथ में जैसे सौ सौ मन लोहे के प्रलय-लंगर लग गए । स्वप्नों का सागर बिखर गया, बालुका नं श्राकांक्ता की मदिरा छितर गह । तमी लिजा ने जैसे उसे याद दिंलाया--“मनोहर, श्राप ऐसे उदास क्यों हो गये | क्या नौकरी का खयाल श्रापको सूट नहीं करता ?' फादर डिक्सन स्नेह भरे शब्दो म बोले--“्रोहः मनोहर दाशंनिक तबीयत का ्रादमी है|! उसे यह सैव करीयर-सीकिंग मनोहर फिर भी चुप था । लिजा ने कहा-- छोड़ो भी } कहां श्राने वाले दिनों के लिए मन मव्यर्थकी चिन्ताकरतेदो। मुभे एक बात बताश्रो कि उस दिन जो हमारे बगीचे के फूल श्राप ले गये थे, वे श्मपको पसंद हैं ?' मनोहर ने जैसे तंद्रा से जागते हुए कहा--“हां; बहुत सुन्दर फूल थे | पर्‌ ˆ लिजा को उन्हीं फूलों के लिए, उठकर जाते हुए देखकर मनोहर मना करते हुए बोला--नहीं नहीं, लिजा' * 'ठुम उन्हें लेने फिर मत जाओ ! मैं, मैं रब फूलों को लेकर क्या करू गा १ “क्‍या बात है जो आप श्रन्य हर अच्छी चीज के बारे मैं यों सोचते है, जेः श्रकाल बेराम्य हो गया हो । कया बात है ? श्रापकी तबीयत खराब है ?' 'नहीं-नहीं । में सोच रहा था कि श्रगर फूल ` फूल अप नहीं ही दें तो अच्छा है| फूल की हर पांखुरी के साथ जिम्मेदारी बढ़ती है ।' | श्य




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