रवीन्द्र - साहित्य भाग - 9,10 | Ravindra - Sahity Bhag - 9,10

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Ravindra - Sahity Bhag - 9,10 by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उलभन : नौकाड्बी' उपन्यास ११ रात दनक पदे दी बगेर खाये-पीये सो जाती है तो रमेश उसे तरद-तरदसे छेढ़कर जगाता और सुमलाइट-भरी बातें सुनाता हे । एक दिन शामके बाद रमेशने बहूका जूड़ा पकड़के द्विला दिया , और 'बोला--“सुशीला; आज तुम्हारा जुड़ा अच्छा नहीं वेधा 1” वद्र अचानक कद वेठी--“अच्छा, तुम लोग सभी मुझे सुशीला क्यों कद्दा करते हो १” रमेश इस सवालका सतलव कुछ भौ न समक सका ओर देग होकर उसके मुहको ओर देखता रदा । बहू कहने लगी--“मेरा नाम बदल देनेसे ही क्या मेरा भाग फिर जायगा म तो वचपनसे दी अभागिन ह्र, बगैर मरे मेरा अभागापन नदीं मिटनेका ।” यकायक रमेशकी छती घड़क उठी, उसका चेरा फके पड़ गया, तुरत उसके मनमें शक पेदा दो गया कि जरूर कद्दीं कोई गलतफरमी हुईं है । उसने पूछा--“बचपनसे ही तुम अभागिन केसे हुई १” बहूने कद्दा--“मेरे जनमनेसे पहले ही मेरे पिता मर गये, और मुझे जनम देनेके छे मद्दीने बाद मेरी मा मर गई । फिर ननसाल रही; सो भी चढ़ी मुसिंबतोंसे दिन काटे । अचानक तुम न-जाने कहाँसे चले आये और मुझे पसन्द कर वेढे । दो दिनके अन्दर दी व्याह हो गया , उसके वाद्‌ देख लो, सव मुसीवतं दी सुसीबतं पड़ रही है । रमेश खामोश दोकर तक्रियेके ऊपर सिर रखके लेट गया । आसमानमें चाँद अपनी वाद्नी छिटका रहा था, पर, उसके लिए सारी चाँदनी स्याद दो गई । रमेशको दूसरा सवाल करते हुए डर लगने लगा । जितना उसे मादस हुआ है उसको वह वक्वास या सपना समकर अपनेसे दूर्‌ ठेर देना चाहता हे! बेदोशीठे होशमे आया-हुभा सखस जिस तरद लम्बी साँस छोड़ता है उसी तरदं गरमीके मौसमकी दखिनी इवा चलने गली । ऐसी सुद्दावनो चवाद्नी रात, उपम कोयल वोलं रदी है! पास दौ नदोका घाट है, कौर नावकी छर्तोपर वेठे हुए माको-मलह मीत गा-गाकर आसमानको गु जये दे रहे हैं ।




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