श्री अमर भारती | Shri Amar Bharti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
755
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)एक दूसरे के लिए अर्पण होने की कल्पना नहीं कर सकी ? एक दूसरे
की समस्याओं मे रस नही ले सकी ।
अकर्मभूमि के उस वैयक्तिक युग मे कोई परिवार नही धा।
समाज की कोई कल्पना नही थी, राष्ट्र भी नही था । भूगोल तो था;
राष्ट्र नही था । यदि आप अमुक भूगोल को ही राष्ट्र की सीमा मान
लें, तब तो वहाँ सब कुछ थे, पहाड थे, नदियाँ थी, नाले थें, जगल
थे, और वन थे। परन्तु सही अर्थों मे यह भ्रुगोल था, राष्ट्र नहीं था ।
मनुष्यो का समूह् भी था, अलग-अलग इकादइयो मे मानव समूहं खडा
था, यदि उसे ही समाज मान लें तव तो वह समाज भी था । पर
नही, केवल मनुष्यो के अनियन्त्ित एव अव्यवस्थित समूह् को समाज
नटी माना जा सकता । जव परस्पर मे भावनात्मक एक सूत्रता होती
है, एक दूसरे के लिए सहयोग की भावना से हृदय ओत-प्रोत हो
जाता है, तभी मनुष्यों का समूह परस्पर मे नियन्त्रित एव व्यवस्थित
समाज का रूप लेता है । सघ का रूप लेता है ।
सामूहिक साधना
थे
जैन धर्म की मूल परम्परा मे आप देखेंगे कि वहाँ साधना के
क्षेत्र मे व्यक्ति स्वतन्त्र होकर अकेला भी चलता है और समूह या सघ
के साथ भी) एक भौर जिनकत्पी मुनि सघ से निरपेक्ष होकर व्यक्ति-
गतत साधना के पथ पर वढते है। दूसरी ओर विराट् समूह, हजारो
स।घु-साध्वियो का सघ सामूहिक जीवन के साथ साधना के क्षेत्र मे
भागे बढ़ता है । जहाँ तक मैं समझता हूँ, जैन धर्म और जैन परम्परा
ने व्यक्तिगत धर्म साधना की अपेक्षा सामूहिक साधना को अधिक
महत्वं दिया है । सामूहिक चेतना ओर समूहभाव उसके नियमो के
साध अधिक जुडा हुआ है । अहिसा ओर सत्य की वैयक्तिक साधना
भी सघीय रूप मे सामूहिक-साधना की भरुमिका पर विकसित हुई है ।
अपरिग्रह, द्मा तथा करुणा गौर मैत्री की साधना भी सघीय धरातन
पर टी पटलवित पुप्पित हुई है । जैन परम्परा का साधक अकेला
नहीं चला हैं, बल्कि समूह के रूप मे साधना का विकास करता चला
है । व्यक्तिगत हिंतो से भी सर्वोपरि सघ के हितो का महत्व मानकर
१४ भी अमर मारतौ, जनवरी १६६८
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