वीर शासन के प्रभावक आचार्य | Veer Shasan Ke Prabhavik Acharya

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Book Image : वीर शासन के प्रभावक आचार्य - Veer Shasan Ke Prabhavik Acharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मात्र समझ लिया जाता है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि ये उदाहरण निरन्तरं भोगोपभोगो मे आसक्त सामान्य लोगों के लिए एक सर्वया भिन्न आत्महितकारी मार्ग का दर्दान कराते हैं । राजसम्मान , जैन आचार्यो की विभिन्न लोकदितकारी प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर अनेक राजाओों ने समय-समय पर उनके उपदेश सुने तथा दानों द्वारा उनके ज्ञानप्रसारादि कार्यो मँ सक्रिय सहयोग दिया । राजा श्रेणिक गौर अजातशत्रु द्वारा गोतम भौर सुधमं के सम्मान की कथाएं पुराणप्रसिद्ध हँ । चन्द्रगु् ने भदरवाह से भौर सम्प्रति ने सुहस्ति से घर्मकार्यों की प्रेरणा प्राप्त की । शक राजाओं ने कालक के अनुरोव पर अत्याचारी गर्दभिल्ल का नाश किया । सातवाहन कुछ के राजाओं ने कालक और पादलिस का सम्मान किया । विक्रमादित्य सिद्धसेन से और दुविनीत पृज्यपाद थे प्रभावित थे । गंगवंश- स्थापक मावववर्मां सिंहनन्दि के शिष्य थे । इनके वंदजों ने भी वीरदेव आदि अनेक माचार्वों को. दानादि से सम्मानित किया । चालुक्य वंश के राजाओं ने जिननन्दि, प्रभाचन्द्र, रविकीठि आदि के धर्मकार्यों में सहयोग दिया । हर्प राजा की सभा में मान- तुंग सम्मानित हुए । राष्ट्कूट वंश के राजाओं की सभाओं में अकलंकदेव, जिनसेन, उग्रादित्य थादि को वाणी मुखरित हुई । कर्णाटक में होयसल वंश तथा गुजरात में चौछुक्य वंश का समय शिल्प और साहित्य की समृद्धि से परिपूर्ण रहा, इस काल के आचार्यो के उल्टेखों कौ संख्या सैंकड़ों में पहुँचती है । वादविजय प्राचीन भारत के विभिन्न घामिक सम्प्रदायों ने अपने-अपने मत के समर्थन और अन्य मतों के खण्डन के छिए तर्कशास्त्र का व्यापक उपयोग किया । ऐसे वादविवाद तव विद्वेप महत्त्वपूर्ण हुए जव विभिन्न राजाओं की सभाों में संस्कृत को प्रतिष्ठा मिरी 1 जैन दर्खन अपने यापे वाद को. महततव नहीं देता-उसका उदेश्य तो विभिन्न वादों में यथार्थ तत्त्वज्ञान द्वारा संवाद स्थापित करना है । किन्तु अन्य सम्प्रदायों द्वारा वाद में विजय को सामाजिक लाभ का साधन वनाया गया तव समाज-गौरव की रक्षा के लिए आवदयक होने पर जैन आाचायोँं ने भी वादसभाओं में भाग लिया गौर इसमें - उन्हें सफलता भी अच्छी मिली 1 समन्तभद्र, सिद्धसेन, मल्लवादी, कलक, हरिभद्र, विद्या- नन्द, वादिराज, प्रभाचन्द्र, शान्तिसूरि, देवमूरि मादि को जीवनकयायों से यह्‌ स्पष्ट होता है । शिल्पसमृद्धि वीत्तराग भाव की साधना जैन - परम्परा का लक्ष्य रहा है । सुधिक्षित और अशिक्ित दोनों के लिए इस साधना का एक प्रभावी मार्ग हैं जिनविम्वों का दर्दान । इसलिए समय~समय पर॒ याचार्यो ने जिनमृतियों मौर मन्दिरों के निर्माण का उपदेश माक्कथन




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