जीवाजीवाभिगम सूत्र | Jeevajeevabhigam sutra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्वितीय वाचना--मागम-सकलन का द्वितीय प्रयास ईस्वी पूर्व दितीय शताब्दी के मध्य मे हुआ । सम्राट खारवेल जनधघमं के परम उपासक थे । उनके सुप्रसिंद्ध 'हाथीगूफा' श्रभिलेख से यह सिद्ध हो चुका है कि उन्होंने उडीता के कुमारी पवंत पर जैनमुनियो का एक सघ बुलाया श्रौर मसौर्थकाल मे जो मग विस्मृत हो गये थे, उनका पुन. उद्धार कराया था ।* हिमवत्त थेरावली नामक सस्कृत प्राकृत मिश्रित पट्टावली मे भी स्पष्ट उल्लेख है कि मद्दाराजा खारवेल ने प्रवचन का उद्धार करवाया था 1 * ठृतीय वाचना--श्रागमो को संकलित करने का तीसरा प्रयास वीरनिर्वाणि ८२७ से ८४० के मध्य हमरा 1 उस समय द्वादशवर्पीय भयकर दुष्काल से श्रमणो को भिक्षा मिलना कन्न हो गया था । श्रमणसघ की स्विति गंभीर हो गई थी । विशुद्ध श्राह्मर की श्रन्वेपणा-गवेपणा के लिए युवक मुनि दूर-दूर देशो की भ्रोर चल पड । अ्रनेक वृद्ध एव बहुश्नुत मुनि श्राह्ार के श्रभाव मे श्रायु पुर्ण कर गये । क्षुधा परीषह से सस्त मुनि श्रघ्ययन, श्रघ्यापन, घारण श्रौर प्रत्यावतंन कंसे करते ? सब काये श्रवरुद्ध हो गये । शने श्न. श्रुत का ह्लास होने लगा । ग्रतिशायी श्रुत नष्ट हुआ । अग श्रौर उपाग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से वहुत वडा भाग नष्ट हो गया | दुभिक्ष की समाप्ति पर श्रमणसघ मथुरा में स्कन्दिलाचायं के नेतृत्व मे एकब्रितत हुमा । जिन श्रमणो को जितना जितना अश स्मरण था उसका श्रतुसघान कर कालिक श्रुतत श्र पूर्वगत श्रूतके कुदं अश का सकलन हुमा । यह वाचना मथुरा मे सम्पन्न होने के कारण माथुरी वाचना के रूप में विश्रुत हुई। उस सकलित शुत के प्रथं कौ श्रनुशिष््टि श्राचार्यं स्कन्दिल ने दी थी श्रत. उस अनुयोगं को स्कन्दिली वाचना भी कहा जाने लगा {3 नदीसूत्र की चूरणि श्रौर वृत्ति के श्रबुसार माना जाता है कि दुभिक्ष के कारण किचिन्मात्र भौ श्रुतज्ञान तो नष्ट नही हरा किन्तु केवल श्राचा्यं स्कन्दिलि को छोडकर शेष श्रनुयोगघर मुनि स्वर्गवासी हो चूके थे । एतदथं श्राचायं स्कन्दि ने पूनः ्नुयोग को प्रवतन किया जिससे प्रस्तुत वाचना को माधुरी वाचना कहा गया श्रौर सम्पूर्णे ्रनूयोग स्कन्दिलि सवघी माना गया ।४ चतुर्थं वाचना--जिस समय उत्तर, धवं श्रौर मध्यभारत मे विचरण करने वलि श्रमणो का सम्मेलन मथुरा मे हुझ्मा था उसी समय दक्षिण श्रौर पश्चिम मे विचरण करने वाले श्रमणो की एक वाचना (वीर निर्वाण स ८२७-८४०) वत्लभी (सोराष्ट्‌) मे श्राचायं नागाजुन कौ श्रध्यक्षता मे हुई । किन्तु वहाँ जो धमण एकत्रित हुए थे उन्हे बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो चुका था । जो कुछ उनके स्मरण मे था, उसे ही सकलित किया गया! यहं वाचना वल्लमी वाचना या नागार्जुनीय वाचना के नाम से श्रभिद्धित है ।* पंचम चाचना--वीरनिर्वाण की दसवी शताब्दी ( ९८० या ९९३ ई सन्‌ ४५४-४६६ ) मे देवद्धिगणी श्रमाधमण की श्रव्यक्षता में पुन श्रमणसघ वल्लभी में एकत्रित हुमा । देवद्धिगणी ११ अग शोर एक पूर्व से भी जनल श्राफ दि विहार एण्ड उदीसा रिसचं सोसायटी भा १३ प्र ३३६ जंनसाहित्य का वृहद्‌ इतिहास भा १ पृ ८२ श्रावश्यक चूणि। नदी चुणि ¶ ८, नन्दी गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति । कट्टावली । जिनवचन च दुष्पमाकालवशात्‌ उच्छिल्लप्रायमिति मत्वा भगवद्धि-नागार्जुनस्क न्दिलाचायंप्रभू तिभि पुस्तकेपु न्यस्तमु । --योगशास्त्र, प्र ३, पर २०७ (१७ ९ श ^< ९< ९




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