जैन कथामाला 38 | Jain Kathamala 38

Jain Kathamala  38 by उपाध्याय श्री मधुकर मुनि - Upadhyay Shri Madhukar Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज जन कथामाला : माग ३४ कुछ समय वाद धनना सेठ की दण्डावधि पूरी हुई और वे छोड़ दिये गए । विजय कारागार में ही सड़ता रहा । जब श्र प्ठी घना पर आधे तो सेठानी ने कोई स्वागत नहीं किया, वह्कि मुंह फुलाकर बठ गई, बोली भी नहीं । घन्‍ना को वड़ा दुःख हुआ, पत्नी के इस व्यवहार से | दुःख के साथ आइवर्य अधिक था । अतः कारण जानने के लिए वे स्वयं ही सेठानी से बोले-- कद्रा ! इतने दिन वाद कारागार से आया हूँ और हूँ वोलंती भी नहीं । आखिर चात क्या है ? कुछ बता तो सही । सेठानी भद्रा ने वताया-- “मैंने नौ महीने गर्भ में रखा, लालन-पातन किया और मेरे इक लौते बेटे को विजय ने मार डाला । उसी विजय को तुम अपना खाना ख़िलाते थे । जाओ, मैं तुमसे नहीं वोलूंगी ।” सेठजी इस शिकायत पर मुस्कराये और वोले-- दि अरे पगली ! अगर मैं उसे खाना न ख़िलाता तो जिन्दा करें रहता ? उसे खिलाना मेरी विवशता थी ।” सेठ ने पुरी वात बताई और सेठानी को समझाया | सेठानी का श्रम दूर हो गया । हँसकर वोली-- तो यह बात थी । फिर तो खिलाना ही पड़ता । मैं तो संगध्ी थी कि कहीं आपका उससे ममत्व तो नहीं है ।” ममत्व कैसे होता ? क्या देवदत्त मेरा पत्र नहीं था, पर जीवन रक्षा के लिए ममत्वरहित होकर भी खिलाना ही चाहिए |” जीवन के उत्तर में धनना श्रेप्ठी ने मुनि धर्मघोप री देगना सुनी और दीक्षित होकर संग्रम का पालन करने लगे । अस्त में मुर्त धनना ने संधारा करके धरीर त्यागा और देवलोक प्राप्त किया । भ् भ् >




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