पुस्तकालय | Pustakalay

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Pustakalay by रामदयाल पाण्डेय- Ramdayal Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ | पुस्तकालय की सीमाएँ यद्यपि पुस्तकालय श्राज परौद-शिक्ता का एक साधन बन गया है, तथापि वह इस त्तेत्र मं एकमात्र साधन कापि नहीं बन सकता | इसके इस सीमित क्तेत्र का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें प्रौट-शित्ता के स्वरूप का सुक्ष्म परीक्षण करना पड़ेगा । समाज में ऊँची श्रेणी के लोग श्रघिकांशत: स्वावलम्बी रहते हैं। वे अपने जीवन में बड़ी सावधानी के साथ नित्य के श्रनुभव एकत्र किया करते हैं। उनके लिए श्राघुनिक पुस्तकालयों के सन्दरभग्रथ या सदहायकम्रथ ही उपयोगी हैं । नए-नए श्रनुसन्धानौं ग्रौर श्रन्वेषणो से सम्बन्ध रखनेवाली पुस्तकें ही उनकी ज्ञान-राशि को बढ़ाती हैं । उनके व्रिपयर्मे यद कहना उचित हो सकता है कि ग्रन्थालय प्रोद-शिता के पर्याप्त साधन दहै। इस वर्ग के भी ऊपर श्रीरामकृष्ण, वंज्ञानिक रसश, श्ानन्दमयी, श्रविन्द शरोर सो$ वावा जेसे लोकोत्तर महात्मा होते हैं जो संसार में कदाचित्‌ ही प्रकट होते हैं । वे प्रकाश के साक्तात्‌ श्रवतार होति रहै। उनमें श्रपनी मौलिक प्रतिभा होती है जिसके सहारे वे मए-मए ज्ञाम-विज्ञान की सृष्टि करते हैं । श्रपने व्यक्तित्व के व्रिकासके लिए वे पुस्तकालयो पर ही निर्भर नदीं रहते | किन्तु, प्रोट़-शिक्षा का साधारण रथ यह माना जाता है कि समाज के निम्नवगी'य प्रौद़ों का भावी शिक्षण अअधवा ज्ञानव्दट्धन किया जाय | इसीका नाम प्रोट्-शिक्षा है । पुस्तकालयों द्वारा दी वे पूण रूप से स्वयं अपना श्रात्मशिक्षण कदापि नहीं कर सकते । इसके लिए यद्द सर्वथा श्रावश्यक है कि उनके लिए, प्रोढ़- विद्यालय स्थापित किये जायें जहाँ वे छुट्टी के घटों में आवश्यक शिक्षा पा सकें ।. ऐसें विद्यालयों में वेसे दी श्रध्यापक नियुक्त हो जो प्रदो के मनोविज्ञान तथा शिक्षण में दक्त हो । ऐसे विद्यालयों की व्यवस्था करने का मार शिक्षा-विभाग पर होता है, पुस्तकालय-विभाग पर नहीं| यदि एक ही नियम के द्वारा प्रोद-विद्यालय तथा पुस्तकालय, दोनों की व्यवस्था करने का प्रयत्न किया गया तो दोनों के उद्देश्य नष्ट हो जायेंगे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिक्षा-कानून के द्वारा देश के पुस्तकालय-




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