जय सोमनाथ | Jay Somnath
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.52 MB
कुल पष्ठ :
354
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जगत के नाथ
वह अठारह वर्ष की थी, किन्तु उसके शरीर का ठाट-बोट
की वालिका के समान था और उसके सुख-मण्डल पर आठ वर्ष के
चालक की मधुरिमा एवं सरलता आाभासित होती थी । परन्तु उसके
तेजस्वी लयनों में चयोमान की भ्रपेक्षा श्रधिक प्रशान्त गास्भीय था ।
उसके भाल पर रेखाएं श्राती श्र चली जाती । ्रभी तक उसकी
माता क्यों नहीं लौटी ? सवक्ञ ही उसकी माता को न जाते किम
कारण इतने विलम्ब तक विठा रखते थे ? यह वृद्ध सहानुभाव सदा ऐसा
ही कुछ करते रहते थे ।
उसने अपना सिर ऊंचा किया श्रौर सूर्य नारायण की ओर देखा ।
उसके भाल पर हृदय को हिला देने वाली ललित कमान खिच गई ।
सूर्य ढलने लगा था और भगवान् सोमनाथ के मन्दिर पर गिरती हुई
उसकी किरणें सौम्य होने लगी थी ।
कितने ही काल तक वह गम्भीर नयनों को मन्दिर के शिखर पर
गडाये रहो । इस गगन-चुम्बी शिखर को कारीगरी में आनुवंशिक शिहिपय
ने भव्यता के सत्व का सूजन किया था । चौला इसे केलास मानती थी ।
बालपन से ही वह वहां जाती श्रौर मन्दिर के छुल्ने पर खडो-रुडी
सागर की तरज्ञों की ताल के साथ चूत्य करती रहती ।
थोडी हो देर में सूर्यारत होगा--चौला को विचार-माला चली-श्रर
सती शुरू होगी श्र फिर उसकी बारी--उसके जीवन की श्पूर्य
घड़ी झायगी । वह बालिका थी तब ही से उसकी माता इसके सपने
देखती थी श्रौर जब से वह सयानी हुई तबसे इसके लिए दिन-रात
एकाय चित्त से परिश्रम कर रही. थी । जिस क्षण के लिए वह जीवित थी
अब वह उसके हस्त-परिमाण में आने वाला था ।
जगत् के नाथ, सोमनाथ के रक्षन-हेतु उसकी माता के
समान तीन सौ नहंकियां दिन-रात नृत्य करती थी, परन्तु वह स्वयं
सबसे श्धक् थी । किसी के भी पैर इतने सुरेख और सबल न थे । उसकी
करि के ुकाव की छुटा किसी श्रौर की करटि में न थी । गड्ड सबंज्ञ भी
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