जय सोमनाथ | Jay Somnath

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Jay Somnath   by कन्हैयालाल मुन्शी - Kanaiyalal Munshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जगत के नाथ वह अठारह वर्ष की थी, किन्तु उसके शरीर का ठाट-बोट की वालिका के समान था और उसके सुख-मण्डल पर आठ वर्ष के चालक की मधुरिमा एवं सरलता आाभासित होती थी । परन्तु उसके तेजस्वी लयनों में चयोमान की भ्रपेक्षा श्रधिक प्रशान्त गास्भीय था । उसके भाल पर रेखाएं श्राती श्र चली जाती । ्रभी तक उसकी माता क्‍यों नहीं लौटी ? सवक्ञ ही उसकी माता को न जाते किम कारण इतने विलम्ब तक विठा रखते थे ? यह वृद्ध सहानुभाव सदा ऐसा ही कुछ करते रहते थे । उसने अपना सिर ऊंचा किया श्रौर सूर्य नारायण की ओर देखा । उसके भाल पर हृदय को हिला देने वाली ललित कमान खिच गई । सूर्य ढलने लगा था और भगवान्‌ सोमनाथ के मन्दिर पर गिरती हुई उसकी किरणें सौम्य होने लगी थी । कितने ही काल तक वह गम्भीर नयनों को मन्दिर के शिखर पर गडाये रहो । इस गगन-चुम्बी शिखर को कारीगरी में आनुवंशिक शिहिपय ने भव्यता के सत्व का सूजन किया था । चौला इसे केलास मानती थी । बालपन से ही वह वहां जाती श्रौर मन्दिर के छुल्ने पर खडो-रुडी सागर की तरज्ञों की ताल के साथ चूत्य करती रहती । थोडी हो देर में सूर्यारत होगा--चौला को विचार-माला चली-श्रर सती शुरू होगी श्र फिर उसकी बारी--उसके जीवन की श्पूर्य घड़ी झायगी । वह बालिका थी तब ही से उसकी माता इसके सपने देखती थी श्रौर जब से वह सयानी हुई तबसे इसके लिए दिन-रात एकाय चित्त से परिश्रम कर रही. थी । जिस क्षण के लिए वह जीवित थी अब वह उसके हस्त-परिमाण में आने वाला था । जगत्‌ के नाथ, सोमनाथ के रक्षन-हेतु उसकी माता के समान तीन सौ नहंकियां दिन-रात नृत्य करती थी, परन्तु वह स्वयं सबसे श्धक्‌ थी । किसी के भी पैर इतने सुरेख और सबल न थे । उसकी करि के ुकाव की छुटा किसी श्रौर की करटि में न थी । गड्ड सबंज्ञ भी




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