जैनेन्द्र और उनके उपन्यास | Jainendra Aur Unke Upanyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जनन्द्र कुमार : एक परिचय रे जैनेग््र ने भनुभव किया कि भ्रसफलता भौर निराशा उनके भाग्य में झादि से अन्त तक सभी जगह लिखी है । उनके शब्द हैं, “ऐसे में दाईस-तेईस वर्ष का हो भ्राया । हाध-पर से जवान, वेसे नादान । बहशने-घरने लायक कुछ मी नहीं । पढ़ा तो भ्रघुरा भौर हर हुनर से झनजान । दुनिया तब तिलिस्म लगती, कि जिसके दरवाज़े मुझ पर बन्द थे । पर जहाँ-जहाँ फरोखों से मी देता दीखता कि उस दुनिया में खासी ले-दे, धूमधाम झोर चहल-पहल मची है। इद्यारे से बह मुझे बुलाती मालूम होती । पर उस रंगा- रंग संरगाह की चारदिवारी से दाहर होकर पाता कि मे भ्रकेला हूँ भौर सुनसान, सुनसान भोर भकेला ।”* जीवन का एक-एक पल भारी हो गया था, सूकत मे पढ़ता था कि किया क्या जाये। पुस्तकालय हो जैसे झाश्रय था । यथासम्मव जैनेर्द्र ने भधिक- सेनप्रघिक समय पुस्तकालय में बिताय! । धर पर भी पुस्तक वास्तविकता से बचने का साघन थी । कुछ समय 'खामखयाली भौर मटरगदती' में भी बीतता था । इस घोर धाधिक दुरवस्या के कारण जैनेन्द्र ने भमित मानसिक यातना का अनुभव किया । भपनी भ्रसद्वाय भ्रवस्था भर भसमर्थता के कारण “में बेहद भपने में डूबता जाता था ।” श्पने यौवन काल की इन विषमताद्ं ने जैनेग्द्र को भात्महत्या के शब्दों में सोचने पर विवश किपा । किन्तु माँ उनके लिए एक सचाई थी । वृद्धा होती जाती हुई माँ के विचार ने ही उन्हे प्राणान्तक क़दम उठाने से रोक लिया । ऐसी देवसी में मैंने लिखा भौर लिखने ने मुझे; जीत! रखा ।” वास्तव में उस समय लिखना नेत्र के लिए शुद्ध पलायन भीर क्षति-पूति का साधन था । भपने भीतर के घुमड़ते हुए जीवत-घातक विचारों, होन भादनाभो सौर भाकाक्षामों सभी को जैसे भपने लिखने में उन्दोने उठार दिया भौर एक प्रवार से हस्के होकर साँस ली । भौर तीसरी कहानी छपने से जब ४ रुपये का मनीम्राडर जेनेन्द्र के पास भाया तो जैसे वह साक्षातू डिन्दगी हो। “२३०२४ दर्पों को दुनिया में बिता कर भी बयां तनिक उस द्वार की टोह था सका था कि जिसमें से रुपये का भावागमन होता है । मुर्क तो लगा कि मेरे निकम्मेपन की भी कुछ कीमत है ।” फिर कुछ कहानियाँ भ्रौर छपी भौर १९२६ में पहला उपन्यास “पर प्रकाशित हुआ । उसी वर्ष माँ ने भाग किया कि जेनेन्द्र बिदाहू कर लें। जेनेख ने भस्वीकार न किया भौर माँ को पसन्द भौर प्रबन्ध पर जैनेन्द्र का विवाह हो गया । अब तक भाधिक स्पिति में विशेष झन्तर नहीं ाया था परन्तु भगले हो वर्ष “परस' १८. सेल में भर मेरी कति--बेने'्कुमार (साहित्य का थे य सोर प्रेय)




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