प्रायश्चित समुच्चय चूलिका सहित | Prayashchitta-Samuchchaya Chulika Sahit
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
222
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पन्नालाल सोनी -Pannalal Soni
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श्रीमदाचार्य गुरुदास - Shrimadaacharya Gurudas
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)_मतिशेबाबिकार। भ्र परति्षगधिकार। १३
उदे श्रातुसार पहिले प्रतिसेवाका कथन करते हैं,--
निंमित्तादनिमित्ताच प्रतिसेवा दविधा मता ।
कारणात् पोडयोदिष्टा अष्टभंगास्तथेतरे ॥१७॥
भर्थ--निपित्तमे ओर श्रनिपित्ततेः भरतिसेषादो तरहकी
यानी ग ३1 उनमें भो कारणसे सोलह तरहको कही शई ६ै।
इसी तरह श्रकारणपे ्राठ भ ग होते ह । भावार्थ--उपसर्ग
ग्यापि जदि निभिरतोँको पाकर दो्पोका सेवन करना शरीर
, इस निपरिचोंकि विना दोषोंका सेवन करना इस तरह प्रतिसेवाके. '
दो भेद हें । सनमें भी भ्येकके ्र्थात् निमित्त प्रतिसेवाकरे
सोलह भोर अनिपिद मतिसेवाके भाठ मेद होते हैं ।
सारांश--कारणकृत प्रतिसेवाके सोलह भंग और अकारखे-
कृत अहिसेवाके भाव मंग होते हँ ॥ ९७॥
सहेतुकः सकऊत्कारी सायुवीची प्रयतवान् ।
तद्विपक्षादिकाः सति षोडसाऽन्योऽन्यताडिताः।४
श्र्ध-परेतुक--उयसर्गादि निपिर्तोको पाकर दोषोंको
सेवन करने वाला १ सझत्कारी-'जिसका एक वार दोष सेवन
करनेका स्त्रभाव है। सानुवीची--झनुवीची नाप अनुकूलता
का है नो अरनुकूलताकर सहित है वह सानुनीची है अर्थात
बिचारपूर्कक श्रागमालुसार बोलने वाला ३ और प्रयलनवान:-
११ चिः ्यपि पाठः
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