गद्य - चयनिका | Gadya- Chayanika

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Gadya- Chayanika by डॉ. कैलाशनाथ भटनागर - Dr. Kailashnath Bhatanagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका ७ ककि सरोवर भरते, तिन पर भाँति-भोति के पक्षी कछोडें करने शर नगर नगर गाँव-गॉव घर-घर संगलाचार होने, घ्राह्मण यदत रचने, दशो दिशा के दिक्पा हषैने, वादरु व्रन-मंडरु पर किरने, देवता भपने- क्षपे विमानो मे वेठे भाखर से एर वपने, विद्याधर, गधर्व, चारण, ठोरु दममे भेरी वजाय-यजाय गुण गाने रुगे, भोर एक भोर उर्वशी मादि पव भ्रा नाच रहीं थीं कि ऐसे समय मादौ षदी भष्टमी बुधवार रोहिणी नक्षत्र में आधी रात को श्री कृष्णचन्द्र ने जन्स लिया, भौर मेघवणे, चन्द्रमुख, कमलनयन हो, पॉताम्बर काछे मुकुट धरे, वैजन्ती- मारु भोर रत्-णति आभूषण परे चतुभुंज रूप किये शंख चक्र गद़ा पद्म स्यि वसुदैव देवकी को दन दिया । देखते ह्य भचम्मे में ही उन दोनों ने ज्ञान से विचारा तो भादि एुरष को जाना, तव हाथ जोड विनती कर कहा--दमारे बडे भाग्य जो भापने दर्शन दिया शौर जन्म- मरण का तिवेडा किया । हतन! कह पदिरी कथा सव सुनाई, जेसे-जेते कंस ने इःख दिया धा! तप्र श्री कृष्णचन्द्र वोके-तुम अवं किसी बातत की चिन्ता मन में न क्रो क्योकि मैने दुम्हारे दुःख दूर करने ही फो अवतार स्या है, पर इस समय सुझे गोकुछ पहुँचा दो, और इसी बिरियाँ यशोदा के छड़की हुई है, सो कंस को छा दो, पने जाने का कारण कहता हूं सो सुना । दो०~-न्द्‌ यक्ञोदा तप कियो, मोही सौ चित्त रय । दैख्यो चाहत बार सुख, रहौ क्‌ दिन जाय ॥ - . फिर कंस को मार भान मि, तुम अपने मनं ओ तचयं धरो,




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